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________________ २७२ विश्वतत्त्वप्रकाशः [८३पटादेः करणदर्शनेन हेतोरसिद्धत्वात्। सर्वदा विद्यमानस्य करणायोगाच्च । तथा हि । वीतं महदादिपटादिकं प्रकृतिकुविन्दादिभिर्न क्रियते । सर्वदा विद्यमानत्वात् आत्मवदिति । ननु सर्वदा प्रकृत्यादितन्त्वादिषु विद्यमानस्य महदादिपटादेरभिव्यक्तिरेव क्रियते नोत्पत्तिरिति चेत् तर्हि अभिव्यक्तिरपि तत्र विद्यमाना क्रियते अविद्यमाना वा। अथ तत्र विद्यमाना क्रियते इति चेन्न। विद्यमानायाः करणायोगात्। तथा हि। विमता अभिव्यक्तिः केनापि न क्रियते विद्यमानत्वात् आत्मवदिति। ननु तत्र विद्यमानाया अप्यभिव्यक्तेरभिव्यक्तिरेव क्रियते नोत्पत्तिरिति चेत् तर्हि साप्यभिव्यक्तिस्तत्र विद्यमाना क्रियते अविद्यमाना वा। नाद्यः विकल्पः विद्यमानायाः करणायोगात्। ननु प्रागविद्यमानाया अप्यभिव्यक्तिरेव क्रियते नोत्पत्तिरिति चेत् तत्रापि विद्यमाना अभिव्यक्तिः क्रियते अविद्यमाना वेत्यनवस्थाप्रसंगात् । अथ प्रागविद्यमाना अभिव्यक्तिः क्रियत इति चेत् तर्हि प्रागविद्यमानकार्योत्पत्ती कः प्रद्वेषः। नन्वविद्यमानकार्योत्पत्त्यङ्गीकारे खरविषाणादेरप्युत्पत्ति. प्रसंगादिति चेन्न। पटादिकार्यस्योपादानादिकारणसद्भावात् खरविषाणादेरुपादानादिकारणाभावाच्च। किं च । नास्माकमयमतिप्रसंगः अपि तु सर्व ____ असत का निर्माण नही होता अतः कारण में कार्य का अस्तित्व मानना आवश्यक है यह कथन ठीक नही। तन्तुओं में वस्त्र विद्यमान नही होता किन्तु ( तन्तुओं से ही ) वस्त्र उत्पन्न होता है। दूसरे, जो पहले विद्यमान ही है वह — उत्पन्न होता है । यह कैसे कहा जा सकता है ? आत्मा सर्वदा विद्यमान होते हैं अतः उन की उत्पत्ति सम्भव नही। उसी प्रकार कार्य भी सर्वदा विद्यमान हों तो उन की उत्पत्ति भी असम्भव होगी । तन्तु आदि कारणों में वस्त्र आदि कार्य विद्यमान तो होते हैं किन्तु उन की अभिव्यक्ति बाद में होती है ( उसी को उत्पत्ति कहते हैं) यह कथन भी ठीक नही। इसे मान भी लें तो प्रश्न होता है कि इस अभिव्यक्ति की उत्पत्ति हुई या वह भी पहले से विद्यमान थी? यदि पहले ही विद्यमान थी तो ' अब अभिव्यक्ति हुई ' इस कथन का कोई अर्थ नही रहता । अथवा इस अभिव्यक्ति की भी अभिव्यक्ति हुई – इस दूसरी अभिव्यक्ति की तीसरी अभिव्यक्ति हुई - इस प्रकार अभिव्यक्तियों की अनन्त परम्परा माननी होगी जो अनवस्था नामक दोष होगा। दूसरे
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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