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________________ १०४ विश्वतत्त्वप्रकाशः [-३६ कारणजन्यं कार्यत्वे सति ज्ञानधर्मत्वात् अप्रामण्यवदिति च। तत्र ज्ञानधर्मत्वादित्युक्ते ज्ञानत्वसामान्येन व्यभिचारस्तव्यवच्छेदार्थ कार्यत्वे सतीति विशेषणोपादानम् । कार्यत्वादित्युक्ते ज्ञानेनैव व्यभिचारः२ तद्व्यपोहार्थ ज्ञानधर्मत्वादिति विशेष्यमुपादोयते। तथा प्रामाण्यं ज्ञान कारणादन्यकारणजं संविदन्यत्वे सति कार्यत्वात् अप्रामाण्यवदिति च। अत्रापि कार्यत्वादित्युक्ते संविदा व्यभिचारः तद्व्यपोहार्थ संविदन्यत्वे सतीति विशेषणम्। संविदन्यत्वादित्युक्ते नित्यपदार्थैर्व्यभिचारः ३ तद्व्यवच्छेदार्थ कार्यत्वादिति विशेष्यमुपादीयते। ननु तथापि प्रामाण्यस्य संविदन्यत्वाभावाद् विशेषणासिद्धो हेत्वाभासः इति चेन। प्रामाण्याभावेऽपि संविदः सद्भावात् तस्य ततोऽन्यत्वसिद्धेः। तथा प्रामाण्यं न शानकारण संविद्विशेषित्वात् अप्रामाण्यवत् । तथा प्रामाण्यं विशिष्टकारणप्रभवं विशिष्टकार्यत्वात् तद्वदिति च । प्रामाण्यमुत्पत्ती परत एवेति स्थितम् । अप्रामाण्यमपि परत एवोत्पद्यत इति बौद्धान् प्रत्यपि एतान् हेतून प्रयोजयेत् । अन्येषा मप्रामाण्यं परत एवोत्पद्यत इत्यत्र विप्रतिपत्तेरभावात् । एवमुत्पत्तिपक्षे प्रामाण्यमप्रामाण्यं च परत एवोत्पद्यत इति स्थितम् ॥ कि कहीं कहीं ज्ञान तो विद्यमान होता है किन्तु प्रामाण्य नहीं होता । तथा जिस प्रकार अप्रामाण्य ज्ञान की एक विशेषता है उसी प्रकार प्रामाण्य भी ज्ञान की एक विशेषता है। अतः अप्रामाण्य के समान प्रामाण्य की उत्पत्ति का कारण भी ज्ञान की उत्पत्ति के कारण से भिन्न होता है। प्रामाण्य और ज्ञान एकही हैं यह कहना तो सम्भव नही है क्यों कि प्रामाण्य न होने पर भी ज्ञान विद्यमान रहता है। अतः ज्ञान और प्रामाण्य की उत्पत्ति भिन्न कारणों से होती है । इस लिये प्रामाण्य की उत्पत्ति स्वतः न मान कर परतः माननी चाहिये। अप्रामाण्य की उत्पत्ति भी परतः मानना उचित है । जिस तरह से मीमांसक प्रामाण्य को स्वतः मानते हैं उसी प्रकार बौद्ध अप्रामाण्य को स्वतः मानते हैं। उन का निरसन भी इसी प्रकार किया जा सकता है। १ ज्ञानत्वसामान्यस्य ज्ञानधर्मत्वेऽपि कार्यत्वाभावः। २ ज्ञानस्य कार्यत्वेऽपि विज्ञानकारणादन्यकारणजन्यत्वाभावः अत उक्तं ज्ञानधर्मत्वात् । ३ नित्यपदार्थे कार्यत्वाभावः। ४ यथा मीमांसकमते प्रामाण्यं स्वतः अप्रामाण्यपरतः तथा बौद्धमतेष्येवं । ५ मीमांसकानाम् ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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