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________________ स्वतःप्रामाण्यविचारः जन्यत्वसिद्धः कथं स्वतस्त्वं स्यात् । प्रत्यक्षेऽपि तिमिरकाचकामलाशुभ्रमणनीयानदूरदेशादिदोषसद्भावे अप्रामाण्योत्पत्तिरिन्द्रियनैर्मल्यसमीपदेशसुखासमावस्थादिगुणसद्भावे तत्प्रामाण्योत्पत्तिरुभयत्र ज्ञानमात्रो. त्पत्तिरिति । अथ इन्द्रियादिनमल्यमिन्द्रियादिस्वरूपमेव । प्रामाण्यं विज्ञानसामग्रीमात्रादुत्पद्यते इति प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वमुच्यते इति चेन। नैर्मल्यादेरेव गुणत्वेन ततः प्रामाण्योत्पत्तौ प्रामाण्यस्य स्वतस्त्वासंभवात्। अथ मलाद्यभाव एव नैर्मल्यादि स कथं गुण इति चेन। निषिद्धपरिवर्यस्याभावस्यापि दुराचारप्रतिपक्षत्वेन सदाचारवत् मलाद्यभावस्य दोषप्रतिपक्षत्वेन गुणत्वसंभवात् किं च। आगमानुमानप्रत्यक्षेषु पापोदयेऽ. प्रामाण्योत्पत्तिः पुण्योदये प्रामाण्योत्पत्तिरुभयत्र ज्ञानमात्रोत्पत्तिरिति प्रामाण्याप्रामाण्ययोरुभयोरप्युत्पत्तिः परत एवेति स्थितम् । तथा च प्रयोगाः। विज्ञानप्रामाण्ये भिन्नकारणजन्ये भिन्नकार्यत्वात् पयःपावकवत्। ननु ज्ञानप्रामाण्ययोभिन्नकार्यत्वमसिद्धमिति चेन। प्रामाण्याभावेऽपि शानस्य सद्भावेन भिन्नकार्यत्वसिद्धेः । तथा प्रामाण्यं विज्ञानकारणादन्य. होती है - स्वतः प्रामाण्य उत्पन्न नही होता। प्रत्यक्ष प्रमाण के विषय में भी यही तथ्य है - अन्धकार, चक्षुदोष, दूर का अन्तर, भ्रमण आदि से इन्द्रियों में दोष उत्पन्न होते हैं उन के कारण वह प्रत्यक्ष अप्रमाण होता है । इन्द्रिय निर्मल होना, समीपता, चित्त सुखी होना आदि गुणों से युक्त प्रत्यक्ष प्रमाण होता है। तथा इन दोनों अवस्थाओं में ज्ञान साधारण है। इन्द्रियों का निर्मल होना यह इन्द्रियों का स्वरूप ही है अतः ज्ञान और प्रामाण्य एक ही सामग्री से उत्पन्न होते हैं यह कथन ठीक नही । इन्द्रियों की निर्मलता स्वाभाविक होने पर भी गुण है -- उसी प्रकार जैसे दुराचार का अभाव ही सदाचाररूपी गण है। इस गुण से ही प्रामाण्य उत्पन्न होता है - सिर्फ ज्ञान से उत्पन्न नही होता। अतः प्रामाण्य की उत्पत्ति स्वतः मानना उचित नही। अप्रमाण ज्ञान पाप का फल है तथा प्रमाणभूत ज्ञान पुण्य का फल है - यह भी प्रामाण्य के स्वतः उत्पन्न होने में बाधक है । ज्ञान और उस का प्रामाण्य ये जल और अग्नि के समान भिन्न कार्य हैं अतः उन का कारण भी भिन्न होना चाहिये । ज्ञान और प्रामाण्य को भिन्न कार्य कहने का कारण यह है. १ प्रत्यक्षपामाण्योत्पत्तिः। २ पुण्यपापोदये सति ।
SR No.022461
Book TitleVishva Tattva Prakash
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVidyadhar Johrapurkar
PublisherJain Sanskruti Samrakshak Sangh
Publication Year1964
Total Pages532
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size39 MB
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