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________________ ३४ जैन तर्क भाषा स्दपरव्यवसायित्वेन स्वतः प्रमाणत्वात्, पराभिमततर्कस्यापि क्वचिदेतद्विचारांगतया, विपर्ययपर्यवसायिन आहार्यशङ्काविघटकतया, स्वातन्त्र्येण शङ्कामात्रविघटकतया वोपयोगात् । इत्थं चाज्ञाननिवर्तकत्वेन तर्कस्य प्रामाण्यं धर्मभूषणोक्तं सत्येव तन्न (तत्र) मिथ्याज्ञानरूपे व्यवच्छेद्ये संगच्छते, ज्ञानाभावनिवृत्तिस्त्वर्थज्ञातताव्यवहारनिबन्धनस्वव्यवसितिपर्यवसितैव सामान्यतः फलमिति द्रष्टव्यम् । ( ४ अनुमानं द्वधा विभज्य स्वार्थानुमानस्य लक्षणम् । ) साधनात्साध्यविज्ञानम्-अनुमानम् । तद् द्विविधं स्वार्थ परार्थं च । तत्र हेतुग्रहण-सम्बन्धस्मरणकारणकं साध्यविज्ञानं स्वार्थम्, यथा गृहीतधूमस्य स्मृतव्याप्तिकस्य 'पर्वतो वहिनमान्' इति ज्ञानम् । अत्र हेतुग्रहण-सम्बन्धस्मरणयोः समुदितयोरेव कारण-त्वमवसेयम्, अन्यथा विस्मृताप्रतिपन्नसम्बन्धस्यागृहीलिंगकस्य च कस्यचिदनुमानोत्पादप्रसंगात् । व्याप्तिको ग्रहण करना जिसका स्वरूप है, ऐसा यह तर्क स्व और परका व्यवसायी होनेसे स्वयं प्रमाण है । नैयायिकोंके माने हुए तर्कका भी कहीं-कहीं व्याप्तिके विचारके अंग रूपमें, आहार्यको संका अर्थात् 'पक्षमें हेतु हो किन्तु साध्य न हो' इस प्रकारके व्यभिचारको आशङ्काके निवारकरूप में और जहाँ ऐसी शङ्का न हो वहाँ स्वतन्त्ररूप से शङ्का-निवारकके रूपमें उपयोग होता है। यदि शंकानिवारक होनेसे तर्ककी प्रमाणता स्वीकार की जाय तो आचार्य धर्मभूषणका कथन कैसे संगत होगा ? उन्होंने तो ( 'न्यायदीपिका' में ) अज्ञाननिवर्तक होनेसे तर्कको प्रमाणता कही है ? इसका उत्तर यह है कि धर्मभूषणने तर्कको अज्ञाननिवर्तक कहा है, सो वहाँ अज्ञानका अभिप्राय मिथ्याज्ञान समझना चाहिए। ऐसा माननेपर कोई असंगति नहीं रहती। अब रह गई यह बात कि यदि तर्क मिथ्याज्ञानका निवारक होनसे प्रमाण है तो प्रमाणमात्रका अज्ञाननिवृत्तिरूप जो फल माना गया है, वह तर्कमें कैसे घटित होगा? इसका उत्तर यह है कि जैनदर्शन में सभी ज्ञान स्वव्यवसायी हैं, अतः तर्क भी स्वव्यवसायस्वरूप है और स्वव्यसाय ही वास्तवमें अज्ञान-निवृत्ति है और उसीके कारण ज्ञानमें अर्थज्ञानताका व्यवहार होता है । इस प्रकार तक में भी अज्ञाननिवृत्तिरूप फल सिद्ध हो जाता है। ४ --- साधनसे साध्यका ज्ञान होना अनुमान है। अनुमान दो प्रकारका है-(१) स्वार्थानुमान और (२) परार्थानुमान । हेतुका ग्रहण (ज्ञान) होनेसे तथा व्याप्तिका स्मरण होनेसे साध्यका ज्ञान होना स्वार्थानुमान है । जैसे-धूमको प्रत्यक्ष जाननेवाले और धूम-अग्निकी व्याप्तिका स्मरण करनेवालेको 'यह पर्वत अग्निमान् है' ऐसा जो ज्ञान होता है, वह स्वार्थानुमान है। यहाँ स्वार्थानुमानके दो कारण बतलाए हैं-हेतुग्रहण और व्याप्तिस्मरण। यह दोनों मिलकर ही कारण होते हैं- अलग-अलग नहीं । अन्यथा जिसने व्याप्ति जानी ही नहीं है या जो जानकरभूल गया है, उसे भी अनुमान हो जायगा। अथवा जिसे व्याप्तिका स्मरण तो है मगर हेतुका
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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