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________________ प्रमाणपरिच्छेदः ३३ त्युपलम्भद्वयम्, पश्चादग्नेरनुपलम्भोऽनन्तरं धूमस्याप्यनुपलम्भ इति द्वावनुपलम्भाविति प्रत्यक्षानुपलम्भपञ्चकाद्वयाप्तिग्रहः- इत्येतेषां सिद्धान्तः, तदुक्तम्" धूमाधीर्वहि नविज्ञामं धूमज्ञानमधीस्तयोः । प्रत्यक्षानुपलम्भाभ्यामिति पञ्चभिरन्वयः । " इति, स तु मिथ्या; उपलम्भानुपलम्भस्वभावस्य द्विविधस्यापि प्रत्यक्षस्य सन्निहितमात्रविषयतयाऽविचारकतया च देशादिव्यवहितसमस्तपदार्थगोचरत्वायोगात् । यत्तु व्याप्यस्याहार्यारोपेण व्यापकस्याहार्यप्रसञ्जनं तर्कः । स च विशेषदर्शनवद् विरोधिशङ्काकालीन प्रमाणमात्र सहकारी, विरोधिशङ्कानिवर्तकत्वेन तदनुकूल एव वा । न चायं स्वतः प्रमाणम्' इति नैयायिकैरिष्यते; तन्न; व्याप्तिग्रहरूपस्य तर्कस्य और फिर धूमका भी अनुपलंभ हुआ । इस तरह दो अनुपलंभ हुए। इन पाँच प्रत्यक्ष एवं अनुपलंभरूप ज्ञानों से ही व्याप्ति का ग्रहण हो जाता है । आशय यह है कि वार वार धूम और अग्नि को साथ-साथ देखने से और वार-वार दोनोंका ही अनुपलंभ होने से यह ज्ञान हो जाता है कि इनमें कोई संबंध है । मगर जब अग्निके दिखने पर भी धूम नहीं दिखता तो यह विशेपता भी विदित हो जाती है कि धूमके विना अग्नि तो हो सकती है, पर अग्निके विना धूम नहीं होता। इस प्रकार जब प्रत्यक्ष और अनुपलंभसे ही व्याप्तिका ग्रहण हो जाता है तो उसे ग्रहण करने के लिए तर्क- नामक पृथक् प्रमाण मानना व्यर्थ है। उनका कहना है: धूम का ज्ञान न होना, अग्नि का ज्ञान होना और धूम का ज्ञान होना, तथा अग्नि और धूम दोनों का ज्ञान न होना-यह पाँच प्रकार का प्रत्यक्ष तथा अनुपलंभरूप ज्ञान ही व्याप्तिका निर्णायक हो जाता है । उनका यह कथन मिथ्या है | चाहे उपलंभरूप प्रत्यक्ष हो, चाहे अनुपलंभरूप प्रत्यक्ष हो, दोनों ही प्रकार का प्रत्यक्ष इन्द्रिय-संबद्ध पदार्थको ही ग्रहण करता है और आगे-पीछे का विचार न करके वर्तमानका ही ग्राहक होता है । अतएव वह शेष-काल आदि से व्यवहित समस्त पदार्थोंको विषय नहीं कर सकता । नैयायिकों की मान्यता यह है कि व्याप्यका *आहार्य आरोप करके व्यापकका आहार्य प्रसंग देना तर्क है । जैसे - पर्वत में यदि अग्नि न होती तो धूम भी न होता ।' यह तर्क है । 'तर्क' स्वतः प्रमाण नहीं है, वह प्रमाणका सहायक है या प्रमाणके अनुकूल है, इस कारण प्रमाणका अनुग्राहक मात्र है । स्थाणु और पुरुष - विषयक संशयकी अवस्थामें होनेवाला विशेषका दर्शन जैसे इन्द्रियका सहकारी होता है या दूसरी कोटिका निवारक मात्र होता है । उसी प्रकार तर्क भी प्रमाणका सहायक होकर अथवा विरोधिशंकाको दूर करके प्रमाणके अनुकूल होत । किन्तु वह स्वयं प्रमाण नहीं है । उनका यह कथन युक्ति युक्त नहीं है । * बाधनिश्चयकालीन इच्छाजनितज्ञान आहार्य ज्ञान है ।
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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