SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 38
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५ प्रमाणपरिच्छेदः (परोक्षं लक्षयित्वा पञ्चधा विभज्य च स्मृतेनिरूपणम् । ) _अथ परोक्षमुच्यते-अस्पष्टं परोक्षम् । तच्च स्मरण-प्रत्यभिज्ञान-तर्का-ऽनुमानागमभेदतः पञ्चप्रकारम् । अनुभवमात्रजन्यं ज्ञानं स्मरणम्, यथा तत् तीर्थकरबिम्बम् । न चेदमप्रमाणम्, प्रत्यक्षादिवत् अविसंवादकत्वात् । अतीततत्तांशे वर्तमानत्वविषयत्वादप्रमाणमिदमिति चेत्, न; सर्वत्र विशेषणे विशेष्यकालभानानियमात् । अनुभवप्रमात्वपारतन्त्र्यादत्राप्रमात्वमिति चेत्, न; अनुमितेरपि व्याप्तिज्ञानादिप्रमात्वपारतन्त्र्येणाप्रमात्वप्रसंगात् । अनुमितेरुत्पत्तौ परापेक्षा, विषयपरिच्छेदे तु स्वातन्त्र्यमिति चेत्, न; स्मृतेरप्युत्पत्तावेवानुभवसव्यपेक्षत्वात्, स्वविषयपरिच्छेदे तु स्वातन्त्र्यात् । परोक्षप्रमाण अस्पष्ट ज्ञान परोक्ष कहलाता है । उसके पाँच भेद हैं-१) स्मरण २) प्रत्यभिज्ञान ३) तर्क ४) अनुमान और ५) आगम। १ सिर्फ अनुभवसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान स्मरण है, यथा-वह तीर्थकरकी प्रतिमा ! स्मरण अप्रमाण नहीं है, क्योंकि वह प्रत्यक्ष आदिकी भाँति अविसंवादक है। अर्थात् जैसे प्रत्यक्ष प्रमाणसे किसी पदार्थको जानकर प्रवृत्ति करनेसे सफलता मिलती है, उसी प्रकार स्मरणसे जानकर प्रवृत्ति करने पर भी सफलता मिलती है। शंका-अतीतकालीन तत्-ता अंशमें वर्तमानताका बोध करनेसे स्मरण अप्रमाण है अर्थात् स्मरणका विषय तो भूतकालीन पदार्थ होता है, उसमें मालूम ऐसा पड़ता है जैसे कि वह वर्तमान में हो । इस कारण वह प्रमाण नहीं। समाधान-यह नियम नहीं कि सभी जगह विशेषणमें विशेष्यका काल भी मालूम हो। स्मरण में वस्तुकी अतीतकालता और वर्तमानकालीनता दोनों स्वतंत्र मालूम होती है, अतः स्मरण अप्रमाण नहीं। - शङ्का- स्मरण अनुभवके अधीन है, अर्थात् जिस वस्तुका पहले अनुभव न हुआ हो उसका स्मरण भी नहीं होता, इस प्रकार पराधीन होनेसे स्मरण प्रमाण नहीं है। समाधान-इस प्रकार पराधीन होनेसे स्मरणको अप्रमाण कहोगे तो अनुमान भी अप्रमाण हो जायगा, क्योंकि अनुमान भी व्याप्तिज्ञान (तर्क) आदिके अधीन है । जब तक तर्कसे व्याप्ति न जान ली जाय तब तक अनुमानकी उत्पत्ति नहीं होती, अतएव वह तर्कके अधीन है । शंका-अनुमान केवल उत्पत्ति में ही पराधीन है; अपने विषयको जानने में तो स्वतंत्र हैं । अर्थात् तर्क सामान्यरूपसे अग्नि और धूमकी व्याप्तिको जानता है; पर अनुमान पर्वतनिष्ठ अग्नि-विशेषको जानता है, अत: दोनोंका विषय अलग २ है। के समाधान-इसी प्रकार स्मरण भी उत्पत्ति में ही अनुभवकी अपेक्षा रखता है। अपने विषयको जानने में तो वह भी स्वतंत्र ही है।
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy