SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन तर्क भाषा अनुभवविषयीकृतभावावभासिन्याः स्मृतेविषयपरिच्छेदेऽपि न स्वातन्त्र्यमिति चेत्; तर्हि व्याप्तिज्ञानादिविषयीकृतानर्थान् परिच्छिन्दत्या अनुमितेरपि प्रामाण्यं दूरत एव । नैयत्येनाऽभात एवार्थोऽनुमित्या विषयीक्रियत इति चेत्; तहि तत्तयाऽभात एवार्थः स्मृत्या विषयीक्रियत इति तुल्यमिति न किञ्चिदेतत् । २६ ( २ - प्रत्यभिज्ञानस्य निरूपणम् । ) अनुभवस्मृतिहेतुकं तिर्यगूर्ध्व तासामान्यादिगोचरं सङ्कलनात्मकं ज्ञानं प्रत्यभिज्ञानम् । यथा 'तज्जातीय एवायं गोपिण्डः' 'गोसदृशो गवयः' ' स एवायं जिनदत्तः' 'स एवानेनार्थः कथ्यते' 'गोविलक्षणो महिष' 'इदं तस्माद् दूरम्' इदं तस्मात् समीपम् 'इदं तस्मात् प्रांशु ह्रस्वं वा' इत्यादि । तत्ते दन्तारूपस्पष्टा स्पष्टाकारभेदान्नैकं प्रत्यभिज्ञानस्वरूपमस्तीति शाक्यः ; तन्न; शंका – अनुभव द्वारा जाने हुए पदार्थको जाननेवाली स्मृति विषयके बोधमें भी स्वतंत्र नहीं है । समाधान- तो तर्क आदि द्वारा जाने हुए पदार्थोंको जाननेवाला अनुमान भी प्रमाण कोटि नहीं आयगा । शंका- (तर्कद्वारा ) नियतरूपमें ( यथा - पर्वतनिष्ठ अग्नि के रूप में ) नहीं जाना गया पदार्थ ही अनुमान द्वारा जाना जाता है, अत: वह स्वतंत्र है । समाधान- तो फिर 'तत् ( वह ) ' इस रूप में नहीं जाना गया अर्थ स्मृति - द्वारा जाना जाता है, अतएव स्मरण भी अनुमान के ही समान स्वतंत्र है । २ अनुभव और स्मरण से उत्पन्न होने वाला, १ तिर्यक् सामान्य और ऊर्ध्वता सामान्य आदिको जानने वाला, जोड़रूप ज्ञान प्रत्यभिज्ञान कहलाता है । जैसे-य - यह गाय उसी जाति को है, गवय गौ के समान होता है, यह वही जिनदत्त है, यह भी उसी अर्थ को कहता है, यह भैंस गौसे विलक्षण है, यह उससे दूर है, यह उससे समीप है, यह उससे बड़ा है, यह उससे छोटा है; इत्यादि । प्रत्यभिज्ञान के विषयमें बौद्ध कहते हैं - प्रत्यभिज्ञानमें एक नहीं दो आकार प्रतीत होते हैं। एक 'तत् ( वह ) ' ऐसा आकार और दूसरा 'इदम् (यह ) ' ऐसा आकार । 'इन दोनों आकारों में 'तत्' यह आकार अस्पष्ट है और 'इदम्' आकार स्पष्ट है । इस प्रकार के आकार - भेदके कारण प्रत्यभिज्ञान का स्वरूप एक नहीं है । उनका यह कथन ठीक नहीं । १ - एक कालमें अनेक व्यक्तियों में रहने वाली समानता । २- अनेक कालोंमें एक व्यक्तिमें पायी जाने वाली समानता ।
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy