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________________ २४ जैन तर्क भाषा स्मदादिज्ञानस्य सावरणत्वात्, असर्वविषयत्वे व्याप्तिज्ञानाभावप्रसंगात्, सावरणत्वाभावेऽस्पष्टत्वानुपपत्तेश्च । आवरणस्य च कर्मणो विरोधिना सम्यग्दर्शनादिना विनाशात् सिद्धयति कैवल्यम्। _ 'योगजधर्मानुगृहीतमनोजन्यमेवेदमस्तु' इति केचित्; तन्न; धर्मानुगृहीतेनापि मनसा पञ्चेन्द्रियार्थज्ञानवदस्य जनयितुमशक्यत्वात्। - 'कवलभोजिनः कैवल्यं न घटते' इति दिक्पटः; तन्न; आहारपर्याप्त्यसातवेदनीयोदयादिप्रसूतया कवलभुक्त्या कैवल्याविरोधात्, घातिकर्मणामेव तद्विरोधित्वात् । दग्धरज्जुस्थानीयात्तत्तो न तदुत्पत्तिरिति चेत्, नन्वेवं तादृशादायुषो भवोपग्रहोऽपि न स्यात् । किञ्च, औदारिकशरीरस्थितिः कथं कवलभुक्ति विना भगवतः स्यात् । अनन्तवीर्यत्वेन तां विना तदुपपतौ छद्मस्थावस्थायामप्यपरिमितबलत्वश्रवणाद् भुक्त्यभावः स्यादित्यन्यत्र विस्तरः । उक्तं प्रत्यक्षम् । का ज्ञान आवरण-युक्त है। कदाचित् कहा जाय कि समस्त पदार्थोंका ज्ञान हो ही नहीं सकता, सो ठीक नहीं, ऐसा होता तो व्याप्तिके ज्ञान (तर्क) का अभाव हो जाता । हमारा ज्ञान अगर सावरण न होता तो उसमें अस्पष्टता न होती । ज्ञान की अस्पष्टता उसके आवरणयुक्त होनेका प्रमाण है। वह आवरण, सम्यग्दर्शन आदि विरोधी कारणोंसे नष्ट हो जाता है। इस प्रकार केवलज्ञान की सिद्धि होती है। कोई कहते हैं-योग अर्थात् समाधिसे उत्पन्न होनेवाले धर्म ( विशिष्ट शक्ति ) से युक्त मनसे ही सकल प्रत्यक्ष उत्पन्न होता है।' यह कथन ठीक नहीं, क्योंकि जैसे योगज शक्तिसे सम्पन्न भी पाँच इन्द्रियोंसे सकलप्रत्यक्ष नहीं उत्पन्न हो सकता, उसी प्रकार मनसे भी नहीं उत्पन्न हो सकता। दिगम्बरों का कथन है कि कवलाहारीको केवलज्ञान नहीं हो सकता; सो भी ठीक नहीं। आहारपर्याप्ति नामकर्म और असातावेदनीय कर्मके उदय आदि कारणोंसे होनेवाले कवलाहार का केवलज्ञानके साथ विरोध नहीं है। केवलज्ञानके विरोधी तो घातिककर्म ही हैं । अगर कहा जाय कि आहारपर्याप्ति और असातावेदनीय आदि कर्म केवलीमें जली हुई रस्सीके समान अकार्यकारी होते हैं, अतएव उनके उदयसे कवलाहार नहीं हो सकता; तो इसी प्रकार आयुकर्म भी अकार्यकारी होगा तो फिर केवलोकी भवस्थिति भी नहीं होगी ! इसके अतिरिक्त, कवलाहारके बिना भगवान के औदारिक शरीरकी स्थिति कैसे हो सकती है ? अगर कहो कि अर्हन्त भगवान् में अनन्त वीर्य होता है, इस कारण कवलाहारके बिना भी उनका शरीर टिका रहता है, तो छद्मस्थ अवस्थामें भी उनमें अपरिमित बल सुना जाता है। अतः उसी समय कवलाहारका अभाव हो जाना चाहिए। इस विषयमें अन्यत्र विस्तारसे विचार किया गया है । इस प्रकार प्रत्यक्षका लक्षण कहा गया ।
SR No.022456
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherTiloakratna Sthanakvasi Jain Dharmik Pariksha Board
Publication Year1964
Total Pages110
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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