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________________ परीचामुख mare - क्योंकि:सावरणत्वे करणजन्यत्वे च प्रतिबन्धसंभवात् ॥१२॥ , भाषार्थ-प्रावरण सहित और इन्द्रियों की सहायता से उत्पन्न होनेवाले, ज्ञानका प्रतिबन्ध सम्भव है । भावार्थ-जिस ज्ञान पर आवरण चढा होता है तथा जो ज्ञान इन्द्रियों की सहायता से होता है, उस ज्ञान के मूर्त पदार्थ रोकने वाले हो जाते हैं, जैसे जब हम लोग अपने इन्द्रिय जन्य ज्ञान से किसी पदार्थ को जानना चाहते हैं, तो वहीं तक जान सकते हैं जहां तक कि, जानने की हमारी इन्द्रियों में ताक़त है अथवा वहीं तक जान सकते हैं जहां तक कि कोई दीवाल वगैरह रोकने वाला नहीं होता है । कहने का तात्पर्य यह है कि 'जिसका कोई भी रोकने वाला नहीं है वही ज्ञान मुख्य प्रत्यक्ष है। द्वितीय परिच्छेद का सारांश । प्रमाण के दो भेद हैं एक प्रत्यक्ष, दूसरा परोक्ष । जिन में स्पष्ट ज्ञान को प्रत्यक्ष कहते हैं । परोक्ष का वर्णन तीसरे परिच्छेद में किया जायगा । उस प्रत्यक्ष के दो भेद हैं एक सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष, दूसरा मुख्य प्रत्यक्ष । जिन में इन्द्रियों की और मन की सहायता से होने वाले, थोड़े निर्मल ज्ञानको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं; परन्तु ध्यान देने की बात है, कि जिस तरह इन्द्रियाँ पार मन ज्ञान के कारण हैं अर्थात् जानके उत्पन्न होने में निमित्त कारण हैं, उस तरह आलोक तथा पदार्थ कारण नहीं है; क्योंकि कार्य कारण भाव उन्हीं पदार्थों में होता है, जिन में कि अन्वय व्यतिरेक घटते हों । जैसे कुम्भकार तो कारण है और घट कार्य है, इन
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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