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________________ भाषा-वर्ष। और यह भी है कि:कारणस्यचपरिच्छेद्यत्वे करणादिनाव्याभिचारः॥१०॥ भाषार्थ-जो पदार्थ ज्ञान का कारण होता है वह ही ज्ञान का विषय होता है । यदि ऐसा माना जायेगा, तो इन्द्रियों के साथ व्यभिचार नाम का दोष हो जायगा ; क्योंकि इन्द्रियाँ बान की कारण तो हैं परन्तु विषय नहीं हैं। भावार्थ-बौद्धों का कहना है कि जो २ ज्ञान का कारण होता है वह २ ही ज्ञान का विषय होता है । इस अनुमान में "कारण होना” हेतु है और "विषय होना" साध्य है । अब देखिए, कि इन्द्रियों में हेतु तो रह गया; क्योंकि ये ज्ञान में कारण हैं; परन्तु, साध्य “विषय होना,, नहीं रहा; क्योंकि ऐसा कोई पुरुष नहीं है जो अपनी इन्द्रियों से अपनी ही इन्द्रियों को जान लेवे । बस, हेतु रहकर साध्य के न रहने को ही व्यभिचार दोष कहते हैं, इस लिए ही ऊपर कहा है कि इन्द्रियों के साथ व्यभिचार नाम का दोष श्रावेगा। ... -पारमार्थिक (मुख्य ) प्रत्यक्ष का स्वरूप । सामग्रीविशेषविश्लेषिताखिलावरणमतीन्द्रियमशेषतोमुख्यम् ॥ ११ ॥ भाषार्थ--द्रव्य, क्षेत्र, काल, तथा भाव रूप सामग्री की परिपूर्णता से दूर कर दिये हैं सर्व श्रावरण जिसने ऐसे तथा इन्द्रियों की सहायता रहित और पूर्णतया विशद, ज्ञान को मुख्य प्रत्यक्ष कहते हैं।
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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