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________________ भाषा वर्ष । १६ दोनों में कार्य कारण भाव इसी लिए है कि इन दोनों में अन्वयव्यतिरेक घट जाते हैं । अर्थात् कुम्भकार की उपस्थिति में घट बनता है और उसकी अनुपस्थिति में नहीं बनता है । यही अन्वय व्यतिरेक का लक्षण है कि कारण के होने पर तो कार्य का होना, और कारण के अभाव में कार्य का न होना । परन्तु इस प्रकार ज्ञान के अन्वयव्यतिरेक अर्थ और प्रलोक के साथ नहीं घटते हैं; क्योंकेि अर्थ के अभाव में भी केश में उण्डुक (मच्छर ) का ज्ञान हो जाता है और केश रूप अर्थ होने पर भी उसका ज्ञान नहीं होता है । इसी प्रकार आलोक के प्रभाव में भी उल्लू को रात्रि में ज्ञान होजाता है, और श्रालोक ( प्रकाश ) के होने पर भी दिन में ज्ञान नहीं होता है । बस, अन्वयव्यतिरेक नहीं घटने से अथ और आलोक, ज्ञान के कारगा नहीं हैं । यदि कोई कहे कि फिर ज्ञान पदार्थों को विषय कैसे करेंगा; यह उनका कहना ठीक नहीं है, क्योंकि हम देखते हैं कि दीपक घट से उत्पन्न नहीं होता है फिर भी घट को प्रकाशित करता है, इसी प्रकार ज्ञान भी पदार्थों से नहीं उत्पन्न होकर पदार्थों को जानता है । 7 यदि फिर भी कोई कहे कि भिन्न २ विषय की व्यवस्था कैसे होगी ? अर्थात् भिन्न २ ज्ञान, भिन्न २ पदार्थों को कैसे जानेंगे ? उनके लिये यह उत्तर है, कि जितनी, कर्म के क्षयोपशम से ज्ञान में योग्यता होगी, अथवा जैसी योग्यता होगा; वैसे ही वह पदार्थों को भिन्न २ ( क्रम से) विषय कर लेगा । फिर कोई भी गड़ बड़ न होगी । एवं मुख्य प्रत्यक्ष उसको कहते हैं, जो इन्द्रियों की सहायता रहित तथा श्रावरण रहित, पूर्णतया निर्मल ज्ञान होता है । क्योंकि आवरण सहित और इन्द्रिय मन्य ज्ञान, मूर्त पदार्थों से रोक दिया जाता है; इस लिए वही मुख्य
SR No.022447
Book TitleParikshamukh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhanshyamdas Jain
PublisherGhanshyamdas Jain
Publication Year
Total Pages104
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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