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________________ आस-परीक्षा । आदिक भावकों को उत्पन्न करते रहते हैं। क्रोधादि के द्वारा यह जीव नवीन द्रव्यकर्मोंका वन्ध करता रहता है, और पूर्व में वन्धे हुए पौद्गलिक द्रव्यकर्म, इस जीव में क्रोधादिक भावकर्मों को उत्पन्न करते रहते हैं। इस प्रकार द्रव्यकर्म से भावकर्म, और भावकर्म से द्रव्यकर्म होते रहते हैं, जिनके द्वारा यह जीव अनादि काल से संसार में भटकता रहता है, और सुख प्राप्ति के अनेक उपाय करने पर भी शांति नहीं पाता। इस प्रकार भटकते २ जब कभी इस जीव को "अरि-मित्र, महल-मसान, कंचन-कांच, निंदन-थुति करन । अघोंवतारन-असिपहारन में सदा समता धरन ।। इत्यादि शिक्षाओं का पाठ पढ़ाने वाले सच्चे जैन धर्म की प्राप्ति हो जाती है, उस समय इस जीव के धीरे २ क्रोधादि कषाय नष्ट होते जाते हैं, और उन के स्थान में गुप्ति', समिति', धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय ( हरेक तरह की १ मन पचन काय को वश में रखना। २ देखकर चलना, सव जीवों के हितकर वचन बोलना, शुद्ध भोजन करना, देखकर प्रत्येक वस्तु को रखना व उठाना, मल मूत्रादिक निर्जीव स्थान में त्यागना । . ३ क्षमा करना, मान न करना. मायाचार न करना, लोभ न करना, सत्य बोलना, जीवों की रक्षा करना व इन्द्रियों को वश में करना, तप करना, त्याग करना, संसार को निःसार समझना, अखंड ब्रह्मचर्य का पालन करना।
SR No.022445
Book TitleAaptpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmravsinh Jain
PublisherUmravsinh Jain
Publication Year
Total Pages82
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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