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________________ जैनमत-विचार । आपत्ति के ऊपर विजय पाना) व चारित्र आदि गुण उत्पन्न होते जाते हैं। तथा इन गुणों के द्वारा इस जीव के साथ नवीन कर्मों का बन्ध होना रुकता जाता है । इन नवीनकों के बन्ध के रुकने को ही संवर कहते हैं। पूर्व में बांधे हुए कर्मों के आत्मा से पृथक होने को निर्जरा कहते हैं। इस निर्जरा के “सविपाक व अविपाक" ये दो भेद होते हैं । कर्मों के, आत्मा से-अपना सुख-दुःखरूपी फल देकर-पृथक होने को सविषाक निर्जरा कहते हैं । तप आदि के द्वारा, बिना फल दिये ही, आत्मा से कर्मों के पृथक होने को अविपाक निर्जरा कहते हैं । ये संवर और निर्भरा ही कर्मों के शत्रु होते हैं, तथा आत्मा में कभी हीन रूप में और कभी अधिक रूपमें पाये जाते हैं । परन्तु अहंत परमेष्ठी में सब जीवों की अपेक्षा -इन का परम उत्कर्ष होता है। क्योंकि अन्य जीवों में संवर व निर्जरा की तरतमता (हीनाधिकता ) पाई जाती है। और यह नियम है कि जिस पदार्थ में तरतमता होती है, उसका कहीं न कहीं परमप्रकर्ष अवश्य होता है, जैसे कि दुःख का परम प्रकर्ष सातवें नरक में और सांसारिक सुखका परम प्रकर्ष सर्वार्थसिद्धि के देवों में पाया जाता है। इस प्रकार द्रव्यकर्म पुद्गलात्मक
SR No.022445
Book TitleAaptpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmravsinh Jain
PublisherUmravsinh Jain
Publication Year
Total Pages82
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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