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________________ जैनमत-विचार। और जिन के वियोग से आत्मा की शुद्ध अवस्था हो जाती है, उन्हें कर्म कहते हैं। इन कर्मों के द्रव्यकर्म व भावकर्म, ये दो भेद होते हैं, भावकर्म क्रोधादि को कहते हैं। द्रव्यकर्म पुद्गलद्रव्य की मूक्ष्म अवस्था विशेष का नाम है । जिस प्रकार विष व मदिरा आदि पदार्थों के सेवन करने से जीव को नशा हो जाता है, और जीव अपनी सब सुध बुध भूल जाता है, उसी प्रकार इन द्रव्यकों के सम्बन्ध से यह जीव अपने आप को भूला हुआ चतुर्गतिरूप संसार में मारा २ फिरता रहता है, कभी देव पर्याय से मर कर मनुष्य पर्याय में आता है, कभी मनुष्य पर्याय से मरकर नरक अथवा तिर्यञ्च पर्याय में जाता है । सुख की आशा से प्रत्येक कार्य करने पर भी इस जीव को दुःख ही दुःख की सामग्री मिलती है । कोई मित्र बनकर इस को ठग लेता है, कोई गुरु बनकर कुमार्ग में फंसा देता है, कोई भाई बनकर शत्रु का व्यवहार करता है, जिससे इसकी आत्मा “अग्नि से तप्त लोहे के गोले की तरह" निरन्तर क्रोध, मान आदि कषायाग्नि से तप्तायमान रहती है। और संसार में भरे हुए सूक्ष्म पौद्गलिक कर्मों का अनादि काल से हमेशा प्रतिक्षण संबंध करती रहती है। और ये संबंधित कर्म इस जीव के असली गुणों को-मदिरा आदि की तरह-निरंतर विगाड़ते रहते हैं, और आत्मां में क्रोध मान, माया, लोभ, अज्ञान, बा
SR No.022445
Book TitleAaptpariksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUmravsinh Jain
PublisherUmravsinh Jain
Publication Year
Total Pages82
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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