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________________ अग्निको भिन्न बताता है । इसलिये यह ( उष्णता) अग्निका आत्मभूत लक्षण कहा जाता है। जो लक्षण उपर्युक्त प्रकारसे आत्मभूत न हो उसे अनात्मभूत कहते हैं । अर्थात् जिसका लक्षण करना हो उसके स्वखरूपसे जिस हेतुका स्वरूप (स्वात्मा) भिन्न हो, उसको अनात्मभूत लक्षण कहते हैं। जैसे पुरुषका लक्षण दण्ड । 'दण्डिनमानय' अर्थात् दण्डवालेको लाओ, ऐसा कहने पर, लानेवाला (आशापित मनुष्य) दण्डको देखकर दूसरे पदार्थोंसे उस पुरुषको भिन्न समझ लेता है कि जिसके पास दंड हो या जो दंडी हो । यहां पर दूसरे पदार्थोंसे भिन्नता बतानेबाला लक्षणरूप दण्ड, लक्ष्यरूप पुरुषके खरूपसे अभिन्न नहीं है किंतु भिन्न है । इसलिये ऐसे लक्षणको अनात्मभूत लक्षण कहते हैं । ऐसा ही गन्धहस्तिमहाभाष्यमें भी कहा है कि-"अग्निका 'उष्णता' आत्मभूत लक्षण है और देवदत्त का 'दण्ड' अनात्मभूत लक्षण है।" असाधारणधर्मवचनं लक्षणमिति केचित् । तदनुपपन्नम् । कई मतवाले सर्वथा असाधारण धर्मको ही लक्षणका लक्षण कहते हैं, परन्तु यह उनका कहना ठीक नहीं है। क्योंकि ऐसा माननेसे लक्षणमें अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असम्भव ये तीनों ही दोष आते हैं । उन दोषोंका आगे उल्लेख करते हैं। लक्ष्यधर्मिवचनस्य लक्षणधर्मवचनेन सामानाधिकरण्याभावप्रसङ्गात् । दण्डादेरतद्धर्मस्यापि लक्षणत्वाच्च । किञ्च अव्याप्ताभिधानस्य लक्षणाभासस्यापि तथात्वात् । लक्ष्य और लक्षण ये दोनों एक ही अधिकरणमें रहते हैं, ऐसा नियम है। यदि ऐसा न मानोगे, तो घटका लक्षण पट भी मानना पड़ेगा। परन्तु प्रवादीके माने हुए लक्षणके अनुसार, लक्ष्य तथा लक्षण रहना एक ही अधिकरणमें नहीं बन सकता। क्योंकि उसके मतानुसार लक्षण, लक्ष्यमें रहता है और लक्ष्य
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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