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________________ ४ और जबतक उसका लक्षण न किया जायगा, तबतक उसकी परीक्षा नहीं हो सकती । और विना परीक्षाके उस पदार्थकी विवेचना नहीं हो सकती इसलिये इन तीनोंके द्वारा प्रमाण और नयोंका विवेचन किया जाता है । लोक तथा शास्त्रमें इन्हीं तीन प्रकारों द्वारा वस्तुविवेचन करनेकी परिपाटी प्रचलित है । तत्र विवेक्तव्यनाममात्रकथनमुद्देशः । व्यतिकीर्णवस्तुव्यावृत्तिहेतुर्लक्षणम् । तदाहुवर्तिककारपादाः – “परस्परव्यतिकरे सति येनान्यत्वं लक्ष्यते तल्लक्षणम्" इति । जिस वस्तुका विचार करना हो उसके नाममात्र कहनेको उद्देश कहते हैं । अनिर्धारित वस्तुसमूहमेंसे किसी एक विवक्षित वस्तुका निर्धार करानेवाले हेतुको लक्षण कहते हैं । श्रीअकलङ्कस्वामीने भी तत्त्वार्थवार्तिकालङ्कारमें यही कहा है कि - " परस्पर मिली हुई वस्तुओंमेंसे ( अविशेषितरूपसे उपस्थित हुई वस्तुओंमेंसे) किसी एक वस्तुकी भिन्नता जिसके द्वारा समझी जाय, उसको 'लक्ष्ण' कहते हैं" । द्विविधं लक्षणमात्मभूतमनात्मभूतं चेति । तत्र यद्वस्तुस्वरूपानुप्रविष्टं तदात्मभूतम् । यथाग्नेरौष्ण्यम् । औष्ण्यं ह्यग्नेः स्वरूपम् तदग्निमवादिभ्यो व्यावर्तयति । तद्विपरीतमनात्मभूतम् । यथा दण्डः पुरुषस्य । दण्डिनमानयेत्युक्ते हि दण्डः पुरुषाननुप्रविष्ट एवं पुरुषं व्यावर्तयति । तद्भाष्यं “ तत्रात्मभूतमग्रौष्ण्यमनात्मभूतं देवदत्तस्य दण्डः" इति । I लक्षण दो प्रकारका होता है- एक आत्मभूत दूसरा अनात्मभूत । जो वस्तुके स्वरूपसे भिन्न न हो उसको आत्मभूत कहते हैं । जैसे अग्निका लक्षण उष्णता । यह उष्णता अनिका स्वरूप होकर ही जलादिक सम्पूर्ण पदार्थोंसे उस
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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