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________________ अपने अवयवोंमें रहता है। जैसे कि पृथिवीका लक्षण गन्ध है। वह गन्ध पृथिवीमें रहता है और पृथिवी अपने अवयवोंमें रहती है। इसी प्रकार सभी उदाहरणोंमें लक्ष्य तथा लक्षणमें भिन्नाधिकरणता ही सिद्ध होती है । कहीं भी एकाधिकरणता नहीं बनती। इसलिये इस लक्षणके लक्षणमें असम्भव दोष आता है । दूसरे, पुरुषका लक्षण दण्ड भी होता है, परन्तु प्रवादीके कथनानुसार उसमें लक्षणका लक्षण घटित नहीं होता। क्योंकि दण्ड पुरुषका असाधारण धर्म नहीं है । इसलिये लक्ष्यके किसी एक देशमें लक्षणके घटित न होनेसे अव्याप्ति दोष आता है। तीसरे, अन्याप्तिदोषसहित लक्षणाभासमें (अलक्ष्यमें ) भी इस लक्षणके घटित होनेसे अतिव्याप्ति दोष आता है । क्योंकि गौका शाबलेयत्वादिक, अव्याप्ति दोषसे दूषित होनेके कारण वास्तविक लक्षण तो नहीं है परन्तु वह असाधारण धर्म अवश्य है । क्योंकि वह गौको छोड़कर दूसरी जगह नहीं रहता। आगे इन दोषोंका ( अव्याप्ति, अतिव्याप्ति, असम्भव ) लक्षण कहकर अव्याप्ति दोषको घटित करते हैं; तथा हि-त्रयो लक्षणाभासभेदाः। अव्याप्तमतिव्याप्तमसम्भवि चेति । तत्र लक्ष्यैकदेशवृत्त्यव्याप्तम् , यथा गोः शावलेयत्वम् । लक्ष्यालक्ष्यवृत्त्यतिव्याप्तम्, यथा तस्यैव पशुत्वम् । बाधितलक्ष्यवृत्त्यसम्भवि, यथा नरस्य विषाणित्वम् । अत्र हि लक्ष्यकदेशवर्तिनः पुनरव्याप्तस्यासाधारणधर्मत्वमस्ति न तु लक्ष्यभूतगोमात्रव्यावर्तकत्वम् । तस्माद्यथोक्तमेव लक्षणम् । तस्य कथनं लक्षणनिर्देशः॥ १ एक खास रंगका नाम है जो कि गौको छोड़कर दूसरी जगह नहीं रहता।
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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