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________________ इस प्रकार मङ्गलाचरणके चार प्रयोजन विचारकर ग्रंथारंभके समय ग्रन्थकार मङ्गलाचरण करते हैं श्रीवर्धमानमहन्तं नत्वा बालप्रबुद्धये ।। विरच्यते मितस्पष्टसन्दर्भन्यायदीपिका ॥१॥ ___ अन्तरङ्ग केवलज्ञानादिरूप और बाह्य समवसरणादिरूप दोनों ही प्रकारकी लक्ष्मीसे युक्त अन्तिम तीर्थकर श्रीवर्धमान खामीको नमस्कार करके-जो व्याकरण, काव्य, कोष, छन्द, अलङ्कार आदि अनेक ग्रन्थोंमें प्रवीण हैं परन्तु न्यायशास्त्रमें अनभिज्ञ हैं उन बालकोंका न्यायशास्त्र में प्रवेश होजाय इसलिये मैं संक्षिप्त और सरलरचनायुक्त न्यायदीपिकाको रचता हूं। "प्रमाणनयैरधिगमः" इति महाशास्त्रतत्वार्थसूत्रम् । तत्खलु परमपुरुषार्थनिःश्रेयससाधनसम्यग्दर्शनादिविषयभूतजीवादितत्त्वाधिगमोपायनिरूपणपरम् । प्रमाणनयाभ्यां हि विवेचिता जीवादयः सम्यगधिगम्यन्ते । तव्यतिरेकेण जीवाद्यधिगमे प्रकारान्तरासम्भवात् । ततएव जीवाद्यधिगमोपायभूतौ प्रमाणनयावपि विवेक्तव्यौ । तद्विवेचनपराः प्राक्तनग्रन्थाः सन्येव, तथापि केचिद्विस्तृताः केचिद्गम्भीरा इति न तत्र बालानामधिकारः । ततस्तेषां सुखोपायेन प्रमाणनयात्मकन्यायस्वरूपप्रतिबोधकशास्त्राधिकारसम्पत्तये प्रकरणमिदमारभ्यते। श्री तत्त्वार्थाधिगम नाम महाशास्त्रका यह सूत्र है कि"प्रमाणनयैरधिगमः" (प्रमाण और नयोंके द्वारा जीवादिक पदार्थोका निश्चय होता है)। धर्म, अर्थ, काम मोक्ष इन चारों पुरुषार्थोंमें सर्वोत्कृष्ट जो मोक्षपुरुषार्थ, उसकी प्राप्तिका कारण
SR No.022438
Book TitleNyaya Dipika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBansidhar Shastri
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1913
Total Pages146
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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