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________________ ( ४४ ) व्युत्पन्नप्रयोगस्तु तथोपपत्यान्यथानुपपत्त्यैव वा ॥१४॥ ' अग्निमानय देशस्तथैव धूमवत्त्वोपपत्तेधूमवत्त्वान्यथानुपपत्ते । हेतुप्रयोगे हि यथा व्याप्तिग्रहणं विधीयते सा च तावन्मात्रेण व्युत्पन्नैरवधार्यते ॥९६॥ तावता च साध्यसिद्धिः ।।९७॥ तेन पक्षस्तदाधारसूचनायोक्तः ॥१८॥ हिंदी व्युत्पन्न पुरुषके लिये तो साध्यके होते ही साधन का होना और साध्यके अभावमें साधनका न होना, केवल वस इतना ही प्रयोग (हेतुका प्रयोग ) काफी है । जैसा-यह प्रदेश आग्निवाला है क्योंक यहां अग्निके रहने पर ही धूम हो सकता है । अग्निके अभावमें धूम नहिं रह सकता । क्योंकि जिसहेतुकी व्याप्ति किसी न किसी साध्यके साथ निश्चित हो चुकी है उसी हेतुका प्रयोग किया जाता है किंतु विद्वान् लोग उदाहरण आदिकी सहायताके विनाही उस हेतुके प्रयोग सेही व्याप्ति निश्चय करते हैं ॥ एवं उस अविनाभावी ( साध्यके विना न होनेवाले ) हेतुके प्रयोगसे ही साध्यकी सिद्धि हो जाती है और इसीलिये आविनाभावी हेतुके आधार बतलानेके लिये पक्षका प्रयोग करना आवश्यक कहा है ॥९॥ ९५॥९६॥९७॥९८॥ बंगला-किंतु व्युत्पन्न व्यक्तिर जन्य केवल साध्य थाकि लेइ साधनेर अस्तित्व एवं साध्याभावे साधन हयना एतावन्मावह प्रयोग करा (हेतुप्रयोग) उचित । यथा-एइ प्रदेश अग्नि
SR No.022437
Book TitlePariksha Mukham
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManikyanandisuri, Gajadharlal Jain, Surendrakumar
PublisherBharatiya Jain Siddhant Prakashini Samstha
Publication Year1916
Total Pages90
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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