SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 78
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (६६) . [ तृतीय परिच्छेद अविरुद्ध कारणानुपलब्धि कारणानुपलब्धिर्यथा न सन्त्यस्य प्रशमप्रभृतयो भावास्तत्त्वार्थश्रद्धानाभावात् ।। ६६ ।। ___ अर्थ--इस पुरुष में प्रशम, संवेग, निर्वेद, अनुकम्पा और अस्तिक्य रूप भाव नहीं हैं, क्योंकि तत्त्वार्यश्रद्वान का अभाव है। विवेचन-यहाँ प्रतिषेध्य प्रशम आदि भाव हैं, उनमें अवि. रुद्ध कारण सम्यग्दर्शन की अनुपलब्धि है, अतः यह अविरुद्ध कारणानुपलब्धि है। विरुद्ध पूर्वचरानुपलब्धि पूर्वचगनुपलब्धिर्यथा-नोद्गमिष्यति मुहूर्तान्ते स्वातिनक्षत्रं, चित्रोदयादर्शनात् ॥१०० ॥ ..... अर्थ-एक मुहूर्त के पश्चात् स्वाति नक्षत्र का उदय नहीं होगा, क्योंकि अभी चित्रा नक्षत्र का उदय नहीं है। विवेचन-हस्त नक्षत्र के बाद चित्रा और चित्रा के बाद स्वाति का उदय होता है । यहाँ स्वाति का उदय प्रतिषेध्य है, उससे अविरुद्ध पूर्वचर चित्रा के उदय की अनुपलब्धि होने से यह अविरुद्ध पूर्वचरानुपलब्धि है। अविरुद्ध उत्तरचरानुपलब्धि उत्तराचरानुपलब्धिर्यथा नोद्गमत् पूर्वभद्रपदा मुहूर्तात्पूर्व, उत्तरभद्रपदोद्गमानवलोकनात् ॥ १०१॥
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy