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________________ [ प्रथम परिच्छेद विवेचन-उपादेय क्या है और हेय क्या है, इसे बतला देना ही प्रमाण की उपयोगिता है। प्रमाण की यह उपयोगिता तभी सिद्ध हो सकती है जब प्रमाण को ज्ञान रूप माना जाय । यदि प्रमाण ज्ञान रूप न होगा-अज्ञान रूप होगा, तो वह हेय-उपादेय का विवेक नहीं करा सकेगा। जब प्रमाण से हेय-उपादेय का विवेक होता ही है तो उसे ज्ञान रूप ही मानना चाहिए । अज्ञान प्रमाण नहीं है न वै सन्निकर्षादेरज्ञानस्य प्रामाण्यमुपपन्नं, तस्यार्थान्तरस्येव स्वार्थव्यवसितौ साधकतमत्वानुपपत्तेः ॥४॥ अर्थ-सन्निकर्ष आदि* अज्ञानों को प्रमाणता मानना उचित नहीं है; क्योंकि वे दूसरे पदार्थों (घट आदि) की तरह स्व और पर का निश्चय करने में साधकतम नहीं हैं।। विवेचन-इन्द्रिय और पदार्थ के सम्बन्ध को सन्निकर्ष कहते हैं। वैशेषिक दर्शन में सन्निकर्ष प्रमाण माना गया है। उसी सन्निकर्ष की प्रमाणता का यहां निषेध किया गया है। पहले यह बतला दिया गया था कि ज्ञान ही प्रमाण हो सकता है, पर सन्निकर्ष ज्ञान रूप नहीं है अतएव वह प्रमाण भी नहीं हो सकता। ___ सूत्र का भाव यह है-अज्ञान रूप सन्निकर्ष प्रमाण नहीं है, क्योंकि वह स्व और पर के निश्चय में साधकतम ( करण) नहीं है। जो-जो स्व-पर के निश्चय में करण नहीं होता वह प्रमाण भी नहीं होता, * श्रादि शब्द से यहां कारक-साकल्य अादि की प्रमाणता का निषेध किया गया है, पर उसका विवेचन कुछ गहन होने से यहाँ छोड़ दिया गया है।
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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