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________________ प्रमाण-नय-तत्त्वालोक] (२) अतिशय यह हैं :- (१) अपायापगम-अतिशय (२) ज्ञान-अतिशय (३) पूजातिशय (४) क्चनातिशय । ... . ग्रंथ का प्रयोजन प्रमाणनयतत्त्वव्यवस्थापनार्थमिदमुपक्रम्यते ॥१॥ अर्थ-प्रमाण और नय के स्वरूप का निश्चय करने के लिए यह ग्रंथ प्रारम्भ किया जाता है। प्रमाण का स्वरूप . स्वपरव्यवसायि ज्ञानं प्रमाणम् ॥२॥ अर्थ-स्व और पर को निश्चित रूप से जानने वाला ज्ञान प्रमाण कहलाता है। विवेचन–प्रत्येक पदार्थ के निर्णय की कसौटी प्रमाण ही है। अतएव सर्वप्रथम प्रमाण का लक्षण बताया गया है। यहां 'स्व' का अर्थ ज्ञान है और 'पर' का अर्थ है ज्ञान से भिन्न पदार्थ । तात्पर्य यह है कि वही ज्ञान प्रमाण माना जाता है जो अपने-आपको भी जाने और दूसरे पदार्थों को भी जाने, और वह भी यथार्थ तथा निश्चित रूप से। __ ज्ञान ही प्रमाण है अभिमतानभिमतवस्तुस्वीकारतिरस्कारक्षम हि प्रमाणं, अतो ज्ञानमेवेदम् ॥३॥ अर्थ-ग्रहण करने योग्य और त्याग करने योग्य वस्तु को स्वीकार करने तथा त्याग करने में प्रमाण समर्थ होता है, अतः ज्ञान ही प्रमाण है।
SR No.022434
Book TitlePramannay Tattvalok
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShobhachandra Bharilla
PublisherAatmjagruti Karyalay
Publication Year1942
Total Pages178
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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