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________________ ११८ स्वर्गीय पं० जयचंदजी विरचित क्षण ताका कार्य है सो पहले रूपकै क्षण पिछला रूपक्षणकूं उपजाया तैसें ही पहलै रसकै क्षण पिछले रसक्षणकूं उपजाया ऐसैं दोऊ समानकाल कारण अर कार्य भये । तहां कारणतैं कार्यका अनुमान निर्व्यभिचार होय है । ऐसा नांही — जो प्रथमक्षण दूजे क्षणका अनुकूलमात्र ही कारण है जातैं इहां तिसकी सामर्थ्यका रोकनेवाला कोई नाही अर सहकारीकी घटती नांही; अथवा अन्त्यक्षणमात्र नांही जातैं कार्य न उपजै । अर अब कार्य अवश्य उपजै तब व्यभिचार काहेका ? ऐसें जामैं व्यभिचार नांही सो कारण हेतु अवश्य माननां योग्य है ॥५५॥ आगैं अब पूर्वचर अर उत्तरचर हेतुका स्वभाव, कार्य, कारणनामा, हेतुनिविषै अन्तर्मात्र नांही, तातैं न्यारे ही भेद हैं, ऐसें दिखावै हैं; - न च पूर्वोत्तरचारिणोस्तादात्म्यं तदुत्पत्तिर्वा कालव्यवधाने तदनुपलब्धेः ॥ ५६ ॥ याका अर्थ — पूर्वचर अर उत्तरचर हेतुकै तादात्म्य अर तदुत्पत्ति ही है इनकै कालका व्यवधान है— कालका बीच मैं अंतर है, सो जहां कालव्यवधान होय तहां तादात्म्य अर तदुत्पत्तिकी प्राप्ति है । तादात्म्य तौ स्वभाव अर स्वभाववान्‌कै कहिये अर तदुत्पत्ति कार्य कारणकै कहिये । भावार्थ साध्यसाधनकै तादात्म्यसंबंध होतें स्वभाव हेतुविषै अंतर्भाव होय, अर तदुत्पत्तिसंबंध होतें कार्य अथवा कारणविषै अन्तर्भाव होय । सो पूर्वचर उत्तरचर हेतुकै अंतर है ता दोऊ ही संबंध नांही, तातैं स्वभाव कार्य कारण मैं इनिका अन्तर्भाव न होय, जो सहभावी होय तिनिकै ही तादात्म्य संबंध होय, अर अनंतर होय तिनिकै ही हेतु कहिये कारण अर फल कहिये कार्य ऐसा भाव होय, कालके अन्तरमैं ते दोऊ ही भाव नांही ॥ ५६ ॥
SR No.022432
Book TitlePramey Ratnamala Vachanika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaychand Chhavda
PublisherAnantkirti Granthmala Samiti
Publication Year
Total Pages252
LanguageSanskrit, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari & Book_Gujarati
File Size15 MB
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