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________________ नयचक्रसार हि० अ० परिणाम है तो अयथार्थ है। क्योंकि घडा (प्रत्येक पदार्थ) संपूर्ण दृष्टिबिन्दुओंसे विचार करने पर अनित्यके साथ ही नित्य भी प्रमाणित होता है । इससे विचारशील समझ सकते हैं कि-वस्तुका कोई धर्म बताना हो तब इस तरह बताना चाहिए कि जिससे उसके प्रतिपक्षी धर्मका उसमेंसे लोप न हो जाय । अर्थात् किसी भी वस्तुको नित्य बताते समय, उस कथनमें कोई ऐसा शब्द भी जरूर आना चाहिए कि जिससे उस वस्तुके अंदर रहे हुए अनित्यत्व धर्मका प्रभाव मालूम न हो । इसी तरह किसी वस्तुको अनित्य बताने में भी ऐसी शब्द. अंदर रखना चाहिए कि जिससे उस वस्तुगत नित्यत्वका अभाव सूचित न हो* । संस्कृत भाषामें ऐसा शब्द 'स्यात् ' है । ' स्यात् ' शब्दका अर्थ होता है 'अमुक अपेक्षासे ।' ' स्यात् ' शब्द अथवा इसीका अर्थवाची 'कथंचित् ' शब्द या 'अमुक अपेक्षासे' वाक्य जोडकर+ 'स्यादनित्य एव घट: '-"घट अमुक अपेक्षासे अनित्य ही हैं" इस तरह विवेचन करनेसे, घटमें अमुक अन्य अपेक्षासे जो नित्यत्वधर्म रहा हुआ है, उसमें बाधा नहीं पहुंचती है। * इसी तरह ‘अस्तित्व' आदि धर्मोमें भी समझ लेना चाहिए। + 'स्थाव' शब्द या उसीका अर्थवाची दुसरा शब्द जोडे विना भी वचन-व्यवहार होता है; मगर घ्युत्पन्न पुरुषको सर्वत्र अनेकान्त-रष्टिका अनुसंधान रहा करता है।
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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