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सप्तभंगी. दे कि घडा अनित्य ही है, तो उसका यह उत्तर या तो अधूरा है या अयथार्थ है। यदि यह उत्तर अमुक दृष्टिबिन्दुसे कहा गया है तो वह अधूरा है । क्योंकि उसमें ऐसा कोई शब्द नहीं है जिससे यह समझमें आवे कि यह कथन अमुक अपेक्षासे कहा गया है । अतः वह उत्तर पूर्ण होनेके लिए किसी अन्य शब्दकी अपेक्षा रखता है । अगर वह संपूर्ण दृष्टिबिन्दुओंके विचारका हारसे बद्ध और परमार्थसे अबद्ध माननेवाले ब्रह्मवादी स्वाद्वादका तिरस्कार नहीं कर सकते हैं ।"" भिन्न भिन्न नयोंकी विवक्षासे भिन्न भिन्न अर्थोंका प्रतिपादन करनेवाले वेद सर्वतन्त्रसिद्ध स्याद्वादको धिक्कार नहीं दे सकते हैं। चार्वाक यह भी जानता है कि, चतन्यको पृथिव्यादिप्रत्येकत्तस्वरुप माना जाय तो घटादि पदार्थोके चेतन बन जानेका दोष आ जाता है। अतएव चार्वाकका यह कथन है या चार्वाकको यह कहना चाहिए कि--चैतन्य, पृथिव्यादि अनेक तस्वरूप है ! इस एक चैतन्यको अनेकवस्तुरुप-प्रनेकतत्वात्मक मानना x यह स्याद्वादहीकी मुद्रा है। -~x यह ध्यान रखना चाहिए कि इस तरह : माननेमें भी आत्माकी गरज पूरी नहीं होती है । और इसलिए आत्मसिद्धिके पँथ देखने चाहिएँ। स्याद्वादके संबंधमें चार्वाककी सम्मत्ति लेनी चाहिए या नहीं, इस विषयमे हेमचन्द्राचार्य वीतरागस्तोत्रमें लिखते हैं कि:
“सम्मतिविमतिर्बापि चार्वाकस्य न मृग्यते । ... परलोकाऽऽत्ममोक्षेषु यस्य मुह्यति शेमुषी" ॥ . भावार्थ-स्याद्वादके संबंध चार्वाककी, जिसकी बुद्धि परलोक, आत्मा और मोक्षके संबंध मूढ हो गई हैं, सम्मति या विमति ( पसंदगी या नापसंदगी ) देखनेकी जरुरत नहीं है।