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________________ षव्य में परमाणुव्य. (१५) असख्यप्रदेश परिमाणः ततः परमलोकः केवल आकाश प्रदेशव्यूहरुपा स चानन्तप्रदेश परिमाणः __ अर्थ-सर्व द्रव्यों का आधारभूत, अवगाहक स्वभावी जीव पुद्गलों को अवगाहन देने में जो आलंबन हेतु वह आकाशास्तिकाय है. वह लोकालोक परिमाण अनन्त प्रदेशी है. जिसमें जीवादि द्रव्यों की वर्तना है वह लोक असंख्य प्रदेश परिमाण वाला है उसके आगे केवल आकाश प्रदेश व्यूह रुप अनन्त प्रदेशी जीवादि पांच द्रव्यों से रहित जो आकाश द्रव्य है उसीको अलोकाकाश कहते है. कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः एक रस वर्णगंधो द्विस्पर्शः कार्यलिंगीच ॥ पूरणं गलन स्वभाव पुद्गलास्तिकायः स च परमाणुरुपः ते च लोके अनन्ताः, एकरुपाः परमाणवः अनन्ता द्वयणुका अप्यनन्ताः, व्यणुका अप्यनन्ताः, एवं संख्याताणुकस्कंधा अप्यनन्ताः, असंख्याताणुक स्कंधा अप्यनन्ताः, अनन्ताणुकस्कंघा अप्यनन्ताः, एकैकस्मिन् आकाशप्रदेशे एवं सर्व लोकेऽपि ज्ञेयं एवं चत्वारोऽस्तिकायाः अचेतनाः॥ अर्थ-द्वेणुकादिस्कंधोंका अन्त्यम् अर्थात् मूल कारण ही केवल परमाणु. है वह सूक्ष्म है और नित्य है उसमें एकरस एक वर्ण, एक गंध और दो स्पर्श होते हैं. और वह कार्यलिंगी है पूरण गलन स्वभाव वाला परमाणु है. एक रुपवाले परमाणु
SR No.022425
Book TitleNaychakra Sara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMeghraj Munot
PublisherRatnaprabhakar Gyanpushpmala
Publication Year1930
Total Pages164
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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