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नयचक्रसार हि० प्र० तयोरमूर्त्तत्वात् अवधेश्च मूर्ति विषयत्वात् वर्तमान रुपं तु कालं पश्यति द्रव्य पर्यायत्वात्तस्येति । तथा बावीस हजारी में भी कहा हैकालस्य वर्तमानादि रुपत्वात् द्रव्योपक्रमः उपचारात् ॥ और भगवतीसूत्र के तेरहवें शतक में पुद्गल वर्तना की अपेक्षा से काल को रुपी कहा हैं.
अब पंचास्तिकाय का भिन्न २ लक्षण कहते हैं.
तत्र गति परिणतानां जीव पुद्गलानां गत्युपष्टंभहेतु धर्मास्तिकायः स चासंख्यप्रदेश लोकप्रदेश परिमाणः ।
अर्थ-जिनमें गति परिणामी जीव पुद्गलों का जो गत्यालंबन हेतु है उसको धर्मास्तिकाय कहते हैं. वह धर्मास्तिकाय असंख्य प्रदेशी लोकव्यापी लोकमान है सब लोकके एकएक प्रदेश में धर्मास्तिकाय का एकएक प्रदेश अनन्त संबंध से हैं. ये धर्मादि तीन द्रव्य अचल, अवस्थित और अक्रिय है.
स्थिति परिणतानां जीव पुद्गलानां स्थित्युपद्वंभहेतु, धर्मास्तिकायः स चासंख्येयप्रदेश लोक परिमाणः - अर्थ—जो जीव और पुद्गल स्थितिपने को प्राप्त हुवे हैं. उनकी स्थिति का आलंबन हेतु अधर्मास्तिकाय है वह असंख्यात प्रदेशी लोकके प्रमाण हैं.
सर्व द्रव्याणां आधारभूतः अवगाहक स्वभावानां जीव पुद्गलानां अवगाहोपष्टंभकः आकाशास्तिकाया, सचानन्तप्रदेशःलोकालोकपरिमाणः। तत्र जीवादयो वर्तन्ते स लोकः