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________________ ६८ उपासकाध्ययन श्यकता प्रतीत नहीं हुई। किन्तु सर्वार्थसिद्धिम' त्रस जोवोंके प्राणोंका घात न करनेवालेको अहिंसाणवतो कहा है। उसमें न मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदनाका उल्लेख है और न संकल्पका ही उल्लेख है। परन्तु राजवातिकमें "विधा' पद जोड़कर मन वचन काय या कृत कारित अनुमोदनाका निर्देश कर दिया गया है किन्तु संकल्पका उल्लेख उसमें भी नहीं है। हिंसाकी निवृत्तिको अहिंसा कहते हैं । हिंसाका लक्षण तत्त्वार्थसूत्र अध्याय सातमें "प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा ॥१३॥" ऐसा किया है। इसीका खुलासा अमृतचन्द्रसूरिने पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें किया है। यथा, “यस्खलु कषाययोगात्प्राणानां द्रव्यमावरूपाणाम् । न्यपरोपणस्य करणं सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ॥४३॥" अर्थात् कपायके वशीभूत होकर द्रव्यरूप या भावरूप प्राणोंका घात करना हिंसा है । हिंसाका यह लक्षण भी वैसा ही परिपूर्ण है जैसा रत्नकरण्डका अहिंसाणुव्रतका लक्षण है। हिंसाके इस लक्षणका विश्लेषण सर्वार्थसिद्धिकारने बड़ी उत्तमतासे कर दिया है। उन्होंने लक्षणके प्रत्येक पदको सार्थकता बतलाते हुए अनेक प्राचीन उद्धरण देकर यह प्रमाणित किया है कि केवल प्राणोंका घात हो जानेसे ही हिंसा नहीं होती जबतक कि जिसके द्वारा घात हुआ है वह कषायाविष्ट न हो। और यदि वह कायाविष्ट है असावधान और अयत्नाचारो है तो दूसरेके प्राणोंका घात न होनेपर भी वह हिंसाका भागी है, क्योंकि जो प्रमादी है, दूसरोंको कष्ट पहुँचानेके लिए उद्यत है या दूसरोंके प्रति असावधान है वह सबसे पहले तो अपना ही अनिष्ट करके अपना घात करता है, दूसरोंका घात तो पीछेकी वस्तु है, वह हो या न हो किन्न वह हिंसाका भागो होता है। तत्त्वार्थराजवातिकमें तत्त्वार्थसूत्रके उक्त सूत्रका व्याख्यान करते हुए सर्वार्थसिद्धिटीकाके उक्त मन्तव्यको तो दिया ही है। उसके साथ ही साथ महाभारतका एक इलोक देकर यह चर्चा उठायो है कि लोकमें सर्वत्र जीव भरे हुए है, उसमें रहते हए कोई साधु अहिंसक कैसे हो सकता है। इसका समाधान करते हुए भट्टाकलंकदेवने कहा है कि प्राणी दो तरहके होते हैं सूक्ष्म और स्थूल । जो सूक्ष्म हैं उन्हें तो कोई बाधा पहुँच ही नहीं सकती । शेष रहे स्थूल, जहांतक शक्य होता है उसकी रक्षा की जाती है, अतः संयमी पुरुष हिंसाका भागी नहीं होता। भगवज्जिनसेनाचार्यने अपने आदिपुराणमें गृहस्थोंके लिए चर्याका विधान करते हुए लिखा है, "चर्या तु देवतार्थ वा मन्त्रसिद्धयर्थमेव वा। औषधाहारक्लुप्त्य वा न हिंस्यामिति चेष्टितम् ।।१४७॥"-पर्व ३९। अर्थात् देवताके लिए; मन्त्रको सिद्धि के लिए, औषध और भोजनके लिए मैं कभी किसी जीवको नहीं मारूँगा ऐसी प्रतिज्ञाको चर्या कहते हैं । हिंसाके उक्त विवेचनका विस्तत खुलासा पुरुपार्थसिद्ध्युपायमें अमतचन्द्राचार्य ने किया है। कारिका ४३ से ४९ तक उक्त तथ्योंका व्याख्यान करके उन्होंने कारिका ५१ से ५७ तक हिंसाके विविध अंगोंका अभूतपूर्व चित्रण किया है जो द्रष्टव्य है। उसके बाद उन्होंने हिसासे बचनेके इच्छुक जनोंको सबसे प्रथम मद्य मांस मधु और पांच उदुम्बर फलोंके त्यागका आदेश दिया है जिसका निर्देश पहले अष्टमूलगुणोंमें किया गया है। मांसका निषेध करते हुए उन्होंने स्वयं मरे हुए पगुके मासमें भी हिंसा बतलायी है। यह सम्भवतः उन बौद्ध मतानुयायियोंको उत्तर दिया गया है, जो स्वयं मरे हुए पशुका मांस खाने में कोई दोष नहीं मानते । मधुका निषेध करते हुए उन्होंने छत्तेसे स्वयं टपके हुए मधुको भी अखाद्य बतलाया है। मद्यादिककी तरह मक्खन भी त्याज्य है । उदुम्बर फलोंके भक्षणका निषेध करते हुए उन्होंने उन उदुम्बर फलोंको भी त्याज्य बतलाया है जिसमें काल पाकर स जीव मर गये हैं। १. सूत्र. ७-२० की व्याख्याने । २. सूत्र ७-२० की व्याख्यामें । ३. का० ६६-६८ । ४. का० ७० । ५. का० ७१ । ६. का. ७३ ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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