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________________ प्रस्तावना ६६ 1 यह सब बतलाकर उन्होंने लिखा है कि हिंसाका पूर्ण त्याग तो मन वचन काय और कृत कारित मोदना ही होता है। आंशिक त्यागके तो अनेक रूप हैं । उन्होंने जल सब्जी वायु आदिके द्वारा भोगोपभोग में आनेवाले एकेन्द्रिय जीवोंके सिवा शेष एकेन्द्रिय जीवोंकी भी रक्षा करना गृहस्थोंका कर्तव्य बतलाया है । आगे लिखा है कि अमृतत्वके कारण अहिंसारूपी रसायनको पाकर मूर्ख लोगोंकी उक्तियोंके चक्कर में नहीं आना चाहिए। मूर्ख लोगोंकी उक्तियाँ जो सम्भवतः उस समय प्रचलित थीं— निम्न प्रकार उन्होंने बतलायी हैं । १. धर्म के लिए हिंसा नहीं करनी चाहिए जैसे यज्ञों में पशुवध किया जाता है । - २. देवता के लिए हिंसा नहीं करनी चाहिए- जैसे मन्दिरोंमें कालीके सामने बलिदान किया जाता 1 ३. पूज्य अतिथियोंके लिए पशुवध नहीं करना चाहिए । ४. बहुत-से क्षुद्र प्राणियोंको मारनेकी अपेक्षा एक बड़े शरीरधारीको मारना अच्छा है ऐसा सोचकर किसी बड़े प्राणीको भी नहीं मारना चाहिए। ५. एकके मारने से बहुत-से प्राणियोंकी रक्षा होती है ऐसा सोचकर हिंसक जन्तुओंको भी नहीं मारना चाहिए। ६. सिंहादिक बहुत से प्राणियोंका घात करते हैं। ये अगर जीवित रहेंगे तो बहुत पाप उपार्जित करेंगे । अतः उनपर दयाबुद्धि करके भी उन्हें नहीं मारना चाहिए। ७. जो बहुत दुःखी हैं उन्हें यदि मार दिया जाये तो शीघ्र ही उनका दुःखोंसे छुटकारा हो जायेगा । इस प्रकारके तर्करूपी तलवारको लेकर दुःखी जीवोंको भी नहीं मारना चाहिए । ८. सुखकी प्राप्ति बड़े कष्टसे होती है । और यदि सुखी प्राणियोंको मार दिया जाये तो वे मरकर भी सुखो ही उत्पन्न होते हैं । इस प्रकारके कुर्तकरूपी तलवार से सुखी जीवोंकी भी हत्या नहीं करना चाहिए । ९. गुरु महाराज जब समाधिमें लीन हों तब यदि उनका घात कर दिया जाये तो उन्हें उच्चपद प्राप्त हो जायेगा । ऐसा सोचकर शिष्यको अपने गुरुका सिर नहीं काट डालना चाहिए । १०. जैसे घड़े में बन्द चिड़िया घड़े के फूट जानेसे मुक्त हो जाती है वैसे ही शरीरके छूट जानेसे जीव मुक्त हो जाता है ऐसा विश्वास दिलानेवाले धनके लोभी खारपरिकोंका विश्वास नहीं करना चाहिए । ११. सामने से आते हुए किसी भूखे अतिथिको देखकर उसके भोजन के लिए अपना मांस देनेके लिए अपना घात भी नहीं करना चाहिए । इन ग्यारह बातोंसे पता चलता है कि उस समय धर्मको ओटमें हिंसाका व्यापार कितने रूप धारण किये हुए था। अहिंसा और हिंसाका जैसा वर्णन पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में है वैसा पूर्वके या उत्तरके ग्रन्थों में नहीं मिलता । सोमदेव सूरिने अपने उपासकाचार में अहिंसाका नीचेवाला लक्षण लिखा है, यह लक्षण सम्भवतः आदिपुराणके 'चर्या तु देवतार्थं वा' आदि श्लोकको दृष्टिमें रखकर लिखा गया है । इसमें आहारके स्थान में अतिथि और पितर रखे गये हैं और भय बढ़ा दिया गया है, "देवतातिथिपित्रर्थं मन्त्रौषधभयाय वा । न हिंस्यात् प्राणिनः सर्वानहिंसा नाम तद्व्रतम् ॥ ३२० ॥" देवता के लिए, अतिथिके लिए, पितरोंके लिए, मन्त्रसिद्धिके लिए, औषधके लिए और भयसे सब प्राणियोंकी हिंसा न करनेको अहिंसा व्रत कहते हैं ! हम पहले लिख आये हैं कि राजवार्तिक में इस शंकाका समाधान किया गया है कि जब सर्वत्र जीव हैं तो कोई हिंसा से कैसे बच सकता है। सोमदेवसूरिने भी अपने ढंग से इस शंकाका समाधान करते हुए लिखा हैऐसा कोई काम नहीं है जिसमें हिंसा न हो । किन्तु उसमें मुख्य ओर आनुषंगिक भावोंका अन्तर है । जैसे संकल्पमें भेद १. का० ७६ । २. वैदिक कालमें ऐसी पद्धति थी ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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