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________________ -७६२] २६६ उपासकाध्ययन शिल्पिकोरुकवाक्पण्यसंभैलीपतितादिषु । देहस्थितिं न कुर्वोत "लिङ्गिलिकोपजीविषु ॥७६०॥ दीक्षायोग्यास्त्रयो वर्णाश्चत्वारश्च विधोचिता। मनोवाकायधर्माय मताः सर्वेऽपि जन्तवः ॥७॥ पुष्पादिरशनादिर्वा न स्वयं धर्म एष हि।। तित्यादिरिव धान्यस्य किं तु भावस्य कारणम् ।।७६२।। भोगते हैं। किन्तु जो अपना धन खरचकर दूसरोंसे दानादिक दिलाते हैं उसका फल भी दूसरे ही भोगते हैं । ऐसा देखा जाता है कि बहुतसे मनुष्यों के पास खूब धन होता है मगर वे न उसे खा सकते हैं और न दूसरोंको दे सकते हैं । सुन्दर स्त्री होती है मगर शरीरमें भोग शक्ति नहीं होती है । ये सब दूसरोंसे धर्म करानेका ही फल है । खानेको भी हो और हजम करनेकी शक्ति भी हो, सुन्दर स्त्री हो और रमण करनेकी शक्ति भी हो, खूब धन हो और दान देनेकी शक्ति भी हो, ये बातें तो स्वयं धर्म करनेसे ही प्राप्त होती हैं। अतः धर्मके कार्य स्वयं ही करने चाहिए। मुनियोंके आहार लेनेके अयोग्य घर नाई, धोबी, कुम्हार, लुहार, सुनार, गायक, भाट, दुराचारिणी स्त्री, नीच लोगोंके घरमें तथा जो मुनियोंके उपकरण बेचकर उनसे आजीविका करते हैं उनके घरमें मुनिको आहार नहीं करना चाहिए ॥ ७९० ॥ जिन-दीक्षातथा आहारदानके योग्य वर्ण ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य ये तीन वर्णही जिनदीक्षाके योग्य हैं किन्तु आहार दान देनेके योग्य चारों ही वर्ण हैं; क्योंकि सभी प्राणियोंको मानसिक, वाचनिक और कायिक धर्मका पालन करनेकी अनुमति है ।। ७९१ ॥ पुष्प वगैरह और भोजन वगैरह स्वयं धर्म नहीं है, किन्तु जैसे पृथ्वी वगैरह धान्यकी उत्पत्तिमें कारण हैं वैसे ही ये चीजें शुभ भावोंके होनेमें कारण हैं ॥ ७९२ ॥ भावार्थ-पजामें जो पुष्प वगैरह चढ़ाये जाते हैं और मुनिको जो आहार दिया जाता है सो ये पुप्प वगैरह द्रव्य या भोजन स्वयं धर्म नहीं है। किन्तु इनके निमित्तसे जो शुभ भाव होते हैं वे धर्मके कारण हैं क्योंकि उनसे शुभ कर्मका बन्ध होता है। १. "तेषां शुश्रूषणाच्छूद्रास्ते द्विधा कार्यकारवः । कारवो रजकाद्याः स्युः ततोऽन्ये स्युरकारवः ॥१८५॥ कारवोऽपि मता द्वेधा स्पृश्याऽस्पृश्यविकल्पतः । तत्रास्पृश्याः प्रजाबाह्याः स्पश्याः स्युः कर्तकादयः ॥१८६॥"महापुराण, १६ पर्व । २. वन्दिजन । ३. कुटिनी। ४. जातिबाह्य । ५. यतीनामुपकरणजीवितं गृहे आहारो न कर्तव्यः । “गायकस्य तलारस्य नोचकर्मोपजीविनः । मालिकस्य विलिङ्गस्य वेश्यायास्तैलिकस्य च ॥३८॥ दोनस्य सूतिकायाश्च छिपकस्य विशेषतः । मद्यविक्रयिणो मद्यपानसंसगिणश्च न ॥३९॥ क्रियते भोजनं गेहे यतिना भोक्तुमिच्छुना । एवमादिकमप्यन्यच्चिन्तनीयं स्वचेतसा ॥४०॥"-नीतिसार ।१२. वर्णाः । ६. शूद्रजनानामपि विधा-आहार उचितो योग्यः दीयते इत्यर्थः । ७. चाण्डालादयोऽपि मनोवाक्कायः कृत्वा पुण्यमुपार्जयन्ति दोषो नास्ति । ८. -दिरासनादिर्वा आ० । "पुष्पादिः स्तवनादिर्वा नैव धर्मस्य साधनम् । भावो हि धर्महेतुः स्यात्तदत्र प्रयतो भवेत् ॥३१॥"--प्रबोबसार पृ० १९५ । ९. परिणामनिर्मलतायाः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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