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________________ २१९ सोमदेव विरचित [कल्प ४३. श्लो० ७८५अभक्तानां कर्याणामव्रतानां च समसु ।. न भुजीत तथा साधुदैन्यकारुण्यकारिणाम् ॥७८५॥ नाहरन्ति महासत्त्वाश्चित्तेनाप्यनुकम्पिताः । किं तु ते दैन्यकारुण्यसंकल्पोज्झितवृत्तयः ॥७८६॥ धर्मेषु स्वामिसेवायां सुतोत्पत्तौ च कः सुधीः। अन्यत्र कार्यदैवाभ्यां प्रतिहस्तं समादिशेत् ।।७८७।। श्रामवित्तपरित्यागात्परैर्धर्मविधायने । ...निःसंदेहमवाप्नोति परभोगाय तत्फलम् ।।७८८।। भोज्यं भोजनशक्तिश्च रतिशक्तिर्वरस्त्रियः। विभवो दानशक्तिश्च स्वयं धर्मकृतेः फलम् ॥७८६ जो भक्तिपूर्वक दान नहीं देते, या अत्यन्त कृपण हैं अथवा अवती हैं या दीनता और करुणा उत्पन्न करते हैं अर्थात् अपनी दीनता प्रकट करते हैं, या करुणा बुद्धिसे दान देते हैं, उनके घरपर साधुको आहार नहीं लेना चाहिये ।। ७८५ ॥ वे साधु बड़े सत्त्वशाली होते हैं, चित्तसे भी बड़े दयालु होते हैं, उनकी वृत्ति दीनता और करुणाजनक संकल्पोंसे रहित होती है। अतः वे दीनों और दयापात्रोंके घरपर आहार नहीं करते ॥७८६॥ [जो लोग स्वयं दान न देकर दूसरोंसे दान दिलाते हैं उनके बारेमें ग्रन्थकार कहते हैं-] ___जो काम दूसरोंसे कराने लायक है, या जो भाग्यवश हो जाता है उनको छोड़कर धर्मके कार्य, स्वामीकी सेवा और सन्तानोत्पत्तिको कौन समझदार मनुष्य दूसरेके हाथ सौंपता है ? ॥ ७८७ ॥ जो अपना धन देकर दूसरोंके द्वारा धर्म कराता है वह उसका फल दूसरोंके भोगके लिए ही उपार्जित करता है इसमें सन्देह नहीं है ॥ ७८८ ॥ खाद्य पदार्थ, भोजन करनेको शक्ति, रमण करनेकी शक्ति, सुन्दर स्त्रियाँ, सम्पत्ति और दान करनेकी शक्ति, ये चीजें स्वयं धर्म करनेसे ही प्राप्त होती हैं ।। ७८६ ॥ भावार्थ-बहुतसे आरामतलब धनी लोग स्वयं धर्म न करके दूसरोंसे धार्मिक कृत्य कराते हैं । भगवान्की पजाके लिए पुजारी रख लेते हैं। पैसा देकर दूसरोंसे विधान वगैरह कराते हैं। कोई साधु वगैरह आते हैं तो अपने नौकरोंको द्वारपर खड़ा कर देते हैं और उनसे ही आहार भी दिलाते हैं। और यह समझते हैं कि चूँकि इसमें हमारा द्रव्य खर्च होता है इसलिए इसका फल हमें ही मिलेगा। ऐसा समझनेवाले अममें हैं। फल द्रव्य खरचनेसे नहीं मिलता किन्तु भावोंसे मिलता है । जो अपना द्रव्य खरचकर आप ही दानादिक देते हैं उसका फल भी वे स्वयं ही १. लुब्धानाम् "आत्मानं धर्मकृत्यञ्च पुत्रदारांश्च पीडयन् । यो लोभात् सञ्चिनोत्यर्थं स कदर्य इति स्मृतः ॥” इति स्मृतिः। "असम्मताभक्तकदर्यमर्त्यकारुण्यदैन्यातिशयान्वितानाम् । एषां निवासेषु हि साधुवर्ग: परानुकम्पाहितधीन भुङ्वते ।।३९।। उक्तं च-नाहरन्ति महासत्त्वाश्चित्ते नाप्यनुकम्पिताः । किन्तु ते दैन्यकारुण्यसंकल्पोज्झितवृत्तयः ॥"-धर्मरत्नाकर पृ० १२४ । २. किं नु-अ० ज० । ३-ल्पोत्रितवृ-अ० ज० मु० । वृत्तयः सन्तः किं आहरन्ति ? अपि तु न । ४. प्रेषण । ५. यत्किमपि इष्टमनिष्टं च देवः करोति तत्र स्वहस्ते किमपि कर्तुं शक्नोति अतस्तत्र स्वहस्तनियमो नास्ति । ६. निजधनेन परहस्तेन धर्म कारयति ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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