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________________ १०० सोमदेव विरचित [कल्प ४३, श्लो०७३युक्तं हि श्रद्धया साधु सकृदेव मनी नृणाम् । परां शुद्धिमवाप्नोति लोहं विद्धं रसैरिव ॥७६३|| तपोदानार्चनाहीनं मनः सदपि देहिनाम् । तत्फलप्राप्तये न स्यात्कुशूलस्थितबीजवत् ।।७६४|| आवेशिकाश्रितशातिदीनात्मसु यथाक्रमम् । यथौचित्यं यथाकालं यापश्चकमाचरेत् ॥७६५॥ काले कलौ चले चित्ते देहे चान्नादिकोटके । एतचित्रं यदद्यापि जिनरूपधरा नराः ॥७६६|| यथा पूज्यं जिनेन्द्राणां रूपं लेपादिनिर्मितम् । तथा पूर्वमुनिच्छाया पूज्याः संप्रति संयताः ॥७६७।। तर्दुत्तमं भवेत्पात्रं यत्र रत्नत्रयं नरे। देशवती भवेन्मध्यमन्यञ्चासंयतः सुदृक् ॥७६८॥ मनुष्योंका मन यदि एक बार भी सच्ची श्रद्धासे युक्त हो तो वह उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त होता है । जैसे पारदके योगसे लोहा अत्यन्त शुद्ध हो जाता है ।। ७९३ ॥ और प्राणियोंके मन होते हुए भी यदि वह मन तप, दान और पूजामें रत न हो तो जैसे खत्तीमें पड़ा हुआ बीज धान्यको उत्पन्न नहीं कर सकता । वैसे ही वह मन भी उत्कृष्ट विशुद्धिको प्राप्त नहीं कर सकता । अतः यदि मन है तो उसे शुभ कार्योंमें लगाना चाहिए ।। ७९४ ॥ अपने घरपर आये हुए अतिथिको, अपने आश्रितको, सजातीयको और दीन मनुष्योंको समयके अनुसार यथायोग्य पाँच दान क्रमशः देने चाहिए ।। ७९५ ॥ कलिकालमें जिनरूपधारियोंके दर्शन दुर्लभ हैं यह बड़ा आश्चर्य है कि इस कलिकालमें जब मनुष्योंका मन चंचल रहता है और शरीर अन्नका कीड़ा बना रहता है, आज भी जिनरूपके धारक मनुष्य पाये जाते हैं ।। ७९६ ॥ जैसे पाषाण वगैरहमें अंकित जिनेन्द्र भगवान्की प्रतिकृति पजने योग्य है, लोग उसकी पूजा करते हैं, वैसे ही आजकलके मुनियोंको भी पूर्वकालके मुनियोंकी प्रतिकृति मानकर पूजना चाहिए ।।७९७।। पात्रके तीन भेद सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रसे विभूषित मुनि उत्तम पात्र हैं। अणुव्रती १. अतिथिः । २. दानपञ्चकम् । "ऋषियज्ञं देवयज्ञं भूतयज्ञं च सर्वदा । नृयज्ञं पितृयज्ञ च यथाशक्ति न हापयेत् ॥२१॥"-मनुस्मृति, अ० ४ । “आवेशिकज्ञातिषु संस्थितेषु दोनानुकम्पेषु यथायथं तु । देशोचितं कालबलानुरूपं दद्याच्च किंचित स्वयमेव बद्धवा ॥"-धर्मरत्नाकर प० १२६ । ३. "काले कलो संततचञ्चले च चित्ते सदाहारमये च काये। चित्रं यदद्यापि जिनेन्द्ररूपधरा नरा दृष्टिपथं प्रयान्ति ॥६२॥ अतो यथा केवलनायकानां लेपादिक्लुप्तं प्रतिविम्बमय॑म् । तथैव पूर्वप्रतिविम्बवाहाः सम्प्रत्युपाया॑ यतय: सुधीभिः ॥६३॥"-धर्मरत्नाकर पत्र १२६ । “वन्द्यं यथार्हतां रूपं शिलालेपादिनिर्मितम् । तथा पूर्वषिरूपस्था वन्द्या: संप्रति संयताः ॥३४॥"-प्रबोधसार पृ० १९७ । “विन्यस्यदंयुगीनेषु प्रतिमासु जिनानिव । भक्त्या पूर्वमुनीनर्चेत् कुतः श्रेयोऽतिचिनाम् ॥६४॥" सागारधर्मा० २० । ४. 'पात्रं रागादिभिर्दोषः अस्पृष्टो गुणवान् भवेत् । तच त्रेधा जघन्यादिभेदर्भेदमुपेयिवत् ॥१३९।। जघन्यं शीलवान् मिथ्यावृष्टिश्च पुरुषो भवेत् । सदृष्टिमध्यमं पानं
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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