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________________ २७३ -७१८] उपासकाध्ययन रूपं स्पर्श रसं गन्धं शब्दं चैव विदूरतः। अासन्नमिव गृहन्ति विचित्रा योगिनां गतिः॥७१७॥ देग्धे बीजे यथात्यन्तं प्रादुर्भवति नाङ्करः। कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवाङ्करः ॥७१८॥ योगका माहात्म्य योगियोंकी गति बड़ी विचित्र होती है । वे दूरवर्ती रूप, रस, स्पर्श, गन्ध और शब्दको ऐसे जान लेते हैं मानो वह समीप ही है ॥ ७१७ ॥ भावार्थ--योगकी शक्ति अद्भुत है । इसीसे योगियोंको अनेक प्रकारकी ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं । उनका क्षयोपशम प्रबल हो जाता है और उसके कारण वे अन्य प्राणियोंकी शक्तिसे बाहरके पदार्थोंको भी जान लेते हैं। आजकल जड़ शक्तिसे प्रभावित जनसमूह आध्यात्मिक शक्तिको भुला बैठा है और वह शास्त्रोंमें वर्णित ऋद्धियोंको कपोल-कल्पना मानता है । किन्तु वह यह नहीं समझता कि जो मनुष्य जड़ शक्तिके आविष्कार और उसके नियन्त्रणमें पटु है वह स्वयं कितना शक्तिशाली है ? यदि वह अपनी उस शक्तिको केन्द्रित कर सके तो वह क्या नहीं कर सकता। योग या ध्यान आत्मिक शक्तिको केन्द्रित और विकसित करनेका साधन है। जो योगी बाह्य प्रवृत्तियोंसे प्रेरित होकर योगकी साधना करते हैं, उनमें भी अनेक चमत्कारिक बातें पायी जाती हैं। १४वीं शतीमें इब्नबतूता नामका एक विदेशी मुसलमान यात्री भारत भ्रमणके लिए आया था । उसने अपने यात्राविवरणमें अनेक भारतीय योगियोंके आखों देखे चमत्कारिक प्रयोगोंका उल्लेख किया है और लिखा है कि मैं उनके आश्चर्यजनक कामोंको देखकर भयसे मच्छित हो गया। अतः जब बाह्य साधनासे इस प्रकारके चमत्कारिक प्रयोग सम्भव हैं तब यह मानना पड़ता है कि आध्यात्मिक साधनासे क्या नहीं किया जा सकता। अतः योगमें अद्भुत शक्ति है और वह आत्माको परमात्मा बना सकता है। ___जैसे बीजके जलकर राख हो जानेपर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं हो सकता वैसे ही कर्मरूपी बीजके जलकर राख हो जानेपर संसाररूपी अंकुर नहीं उगता ।। ७१८ ॥ भावार्थ-बीजसे अंकुर पैदा होता है और वह अंकुर बढ़कर नव वृक्षका रूप लेता है तो उससे बीज पैदा होता है । इस तरह बीजसे अंकुर और अंकुरसे बीज पैदा होता चला आता है और उसको सन्तान अनादि है। किन्तु यदि बीजको जलाकर राख कर दिया जाये तो फिर वह बीज उग नहीं सकता और इस तरह अनादिकालसे चली आयी बीज-अंकुरकी परम्परा नष्ट हो जाती है । उसी तरह कर्मसे संसार और संसारसे कर्मकी सन्तान भी अनादिकालसे चली आती है। किन्तु कर्मरूपी बीजके नष्ट हो जानेपर संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता और इस तरह कर्म और संसारकी अनादि सन्तानका मूलोच्छेद हो जाता है। १. 'संस्पर्शनं संश्रवणं च दूरादास्वादनाघ्राणविलोकनानि । दिव्यान्मतिज्ञानबलाद वहन्तः स्वस्तिक्रियासु परमर्षयो नः ।'-संस्कृतदेवशास्त्रगुरुपूजा। २. उमास्वातिरचित तत्त्वार्थभाष्यके अन्तमें, तत्त्वार्थवातिकको अन्तिम कारिकाओंमें, जयधवलाके अन्त में और तत्त्वार्थसार ( मोक्षतत्त्व ७ श्लो. ) में यह श्लोक पाया जाता है।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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