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________________ २७८ सोमदेव विरचितं [कल्प ३६ श्लो०७१३दीपहस्तो यथा कश्चित्किचिदालोक्य तं त्यजेत् । शानेन शेयमालोक्य पश्चात्तं शानमुत्सृजेत् ॥७३॥ सर्वपापानवे क्षीणे ध्याने भवति भावना । पापोपहतबुद्धीनां ध्यानवार्ताऽपि दुर्लभा ॥७१४॥ दधिभावगतं क्षीरं न पुनः क्षीरतां व्रजेत् । तत्त्वज्ञानविशुद्धात्मा पुनः पापैर्न लिप्यते ॥७१५॥ मन्दं मन्दं तिपेद्वायुं मन्दं मन्दं विनिक्षिपेत् । न क्वचिद्वार्यते वायुनं च शीघ्रं प्रमुच्यते ॥७१६॥ अन्दरकी ओर ले जाकर शरीरमें पूरनेको पूरक कहते हैं। उस पूरक वायुको स्थिर करके नाभिकमलमें घड़ेकी तरह भरकर रोके रखनेका नाम कुम्भक है । और फिर उस वायुको यत्नपूर्वक धीरेधीरे बाहर निकालनेको रेचक कहते हैं। इसके अभ्याससे मन स्थिर होता है। मनमें संकल्पविकल्प नहीं उठते, और कषायोंके साथ विषयोंकी चाह भी घट जाती है । प्राणायामके अभ्यासी योगीको चार पवनमण्डलों को भी जानना आवश्यक है। ये चारों पवनमण्डल नासिकाके छिद्रमें स्थित हैं । इनका ज्ञान सरल नहीं है । प्राणायामके महान् अभ्याससे ही इन चार पवनमण्डलोंका अनुभव हो सकता है। ये चार पवनमण्डल हैं-पार्थिव, वारुण, मारुत और आग्नेय । इनका स्वरूप ज्ञानार्णवके २९वें प्रकरणमें वर्णित है । वहाँ से जाना जा सकता है । इन पवनमण्डलोंकी साधनाके द्वारा लौकिक शुभाशुभ जाना जा सकता है। यह ऊपर कहा ही है कि लौकिक ध्यानका वर्णन करते हैं सो यह सब वशीकरण, स्तम्भन, उच्चारण आदि लौकिक क्रियाओंके लिए उपयोगी हैं। जैसे कोई आदमी दीपक हाथमें लेकर और उसके द्वारा आवश्यक पदार्थको देखकर उस दीपकको छोड़ देता है वैसे ही ज्ञानके द्वारा ज्ञेय पदार्थको जानकर पीछे उस ज्ञानको छोड़ देना चाहिए ॥७१३॥ समस्त पापकर्मोका आस्रव रुक जानेपर ही मनुष्यको ध्यान करनेकी भावना होती है । जिनकी बुद्धि पापकर्ममें लिप्त है उनके लिए तो ध्यानकी चर्चा भी दुर्लभ है । अर्थात् पापी मनुष्य ध्यान करना तो दूर रहा, ध्यानका नाम भी नहीं ले पाते ॥ ७१४ ॥ तथा जैसे जो दूध दहीरूप हो जाता है वह फिर दूधरूप नहीं हो सकता, वैसे ही जिसका आत्मा तत्त्वज्ञानसे विशुद्ध हो जाता है वह फिर पापोंसे लिप्त नहीं होता ॥ ७१५ ।। भावार्थ-आशय यह है कि पापकोंको छोड़कर ही मनुष्य सम्यग ध्यानका पात्र होता है। और ध्यानके द्वारा विशुद्ध आत्माकी प्रतीति हो जानेपर फिर वह पापपंकमें नहीं फंसता। ध्यान करते समय वायुको धीरे-धीरे छोड़ना चाहिए और धीरे-धीरे ग्रहण करना चाहिए। न वायुको हठपूर्वक रोकना ही चाहिए और न जल्दी निकालना ही चाहिए । अर्थात् श्वासोच्छ्वासकी गति बहुत मन्द होनी चाहिए ॥ ७१६ ॥
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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