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________________ -६२३] उपासकाध्ययन २५५ निर्ममत्ववाला हो जाता है वही पुरुष ध्याता हो सकता है। ध्यान शुभ भी होता है और अशुभ भी होता है। वस्तुके यथार्थ स्वरूपका चिन्तन करना शुभ ध्यान है और मोहके वशीभूत होकर वस्तुके अयथार्थ स्वरूपका चिन्तन करना अशुभ ध्यान है। शुभ ध्यानसे स्वर्गादिकी प्राप्ति होती है और अशुभ ध्यानसे नरकादिकमें जन्म लेना पड़ता है । एक तीसरा ध्यान भी है जिसे शुद्ध ध्यान कहते हैं। रागादिके क्षीण हो जानेसे जब अन्तरात्मा निर्मल हो जाता है तब जो अपने स्वरूपकी उपलब्धि होती है वह शुद्ध ध्यान है। इस शुद्ध ध्यानसे ही स्वाभाविक केवलज्ञानलक्ष्मीकी प्राप्ति होती है। सारांश यह कि जीवके परिणाम तीन प्रकारके होते हैं-अशुभ, शुभ और शुद्ध । अतः अशुभसे अशुभ, शुभसे शुभ और शुद्धसे शुद्ध ध्यान होता है। आर्त और रौद्र ध्यान अशुभ होते हैं, अतः उन्हें नहीं करना चाहिए। धर्मध्यान शुभ है और शुक्ल ध्यान शुद्ध है । ये दो ही ध्यान करनेके योग्य हैं। इनमें पहले धर्म ध्यान ही किया जाता है। उसके लिए ध्यान • करनेवालेको उत्तम स्थान चुनना चाहिए, क्योंकि अच्छे और बुरे स्थानका भी मनपर बड़ा प्रभाव पड़ता है। जहाँ दुष्ट लोग उपद्रव कर सकते हों, स्त्रियाँ विचरण करती हों वहाँ ध्यान नहीं करना चाहिए। तथा जहाँ तृण, काँटे, बाँबी, कंकड़, खुरदरे पत्थर, कीचड़, हाड़, रुधिर आदि हो वहाँ भी ध्यान नहीं करना चाहिए। सारांश यह है कि जहाँ किसी बाब निमित्तसे मनमें क्षोभ उत्पन्न हो सकता है वहाँ ध्यान नहीं हो सकता। इस लिए ध्यान करनेवालेको ऐसे स्थान त्याग देने चाहिए। सिद्धिक्षेत्र, तीर्थहरोंके कल्याणकोंसे पवित्र तीर्थस्थान, मन्दिर, वन, पर्वत, नदीका किनारा, गुफा आदि स्थान जहाँ किसी तरहका कोलाहल न हो, समस्त ऋतुओंमें सुखदायक हों, रमणीक हों, उपद्रवरहित हों, वर्षा, घाम, शीत और वायुके प्रबल अकोरोंसे रहित हों, ध्यान करनेके योग्य होते हैं। ऐसे शान्त स्थानोंमें काष्ठके तख्तेपर, शिलापर या भूमिपर अथवा बालूमें बासन लगाना चाहिए। पयक आसन, अर्द्धपयकासन, वज्रासन, वीरासन, सुखासन, कमलासन और कायोत्सर्ग ये ध्यानके योग्य आसन माने गये हैं । इस समय चूंकि जीवोंके शरीर उतने दृढ़ और शक्तिशाली नहीं होते, इसलिए पर्यकासन और कायोत्सर्ग ये दो आसन ही उत्तम माने जाते हैं। स्थान और आसन ध्यानकी सिद्धिमें कारण हैं। इनमें से यदि एक भी ठीक न हो तो मन स्थिर नहीं हो पाता । ध्यानीको चाहिए कि वह चितको प्रसन्न करनेवाले किसी रमणीक स्थानमें जाकर पर्यकासनसे ध्यान लगाके पालथी लगाकर दोनों हाथोंको खिले हुए कमलके समान करके अपनी गोदमें रखे। दोनों नेत्रोंको निश्चल, सौम्य और प्रसन्न बनाकर नाकके अग्र भागमें ठहरावे । भौहें विकाररहित हों और दोनों होठ न तो बहुत खुले हों और न बहुत मिले हों। शरीर सीधा और लम्बा हो मानो दीवारपर कोई चित्राम बना है। ध्यानकी सिति और मनकी एकाग्रताके लिए प्राणायाम भी आवश्यक माना जाता है। प्राणायाम वायुकी साधनाको कहते हैं। शरीरमें जो वायु होती है वह मुख नाक वगैरहके द्वारा आती जाती है। इसके कारण भी मन चंचल रहता है। जब वह वशमें हो जाती है तब मन भी वशमें हो जाता है। किन्तु जैनशास्त्रोंमें प्राणायामको चित्तशुद्धिका प्रबल साधन नहीं माना गया है; क्योंकि उसको हठपूर्वक करनेसे मन स्थिर होनेके बदले व्याकुल हो उठता है । अतः मोक्षार्थीके लिए प्राणायाम उपयुक्त नहीं है। किन्तु ध्यानके समय श्वासोच्छ्वासका मन्द होना आवश्यक है, जिससे उसके कारण ध्यानमें विन न पड़ सके । अतः ध्यान करनेके लिए इन्द्रियों
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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