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________________ २५६ सोमदेव विरचित [कल्प ३६, श्लो० ६२४ चित्तेऽनन्तप्रभावेऽस्मिन्प्रकृत्या रसवञ्चले। तत्तेजसि स्थिरे सिद्धेन किं सिद्धं जगत्त्रये ॥६२४॥ को वशमें करके और राग-द्वेषको दूर करके अपने मनको ध्यानके दस स्थानोंमेंसे किसी एक स्थान पर लगाना चाहिए । नेत्र, कान, नाकका अग्र भाग, सिर, मुख, नाभि, मस्तक, हृदय, तालु और दोनों भौंहोंका बीच-ये दस स्थान मनको स्थिर करनेके योग्य हैं। इनमें से किसी एक स्थान पर मनको स्थिर करके ध्येयका चिन्तन करनेसे ध्यान स्थिर होता है। ध्यान करनेसे पहले ध्यानी को यह विचारना चाहिए कि देखो, कितने खेदकी बात है कि मैं अनन्त गुणोंका भण्डार होते हुए भी संसाररूपी वनमें कर्मरूपी शत्रुओंसे ठयाया गया। यह सब मेरा ही दोष है। मैंने ही तो इन शत्रुओंको पाल रखा है। यदि मैं रागादिक बन्धनोंमें बँधकर विपरीत आचरण न करता तो कर्मरूपी शत्रु प्रवल ही क्यों होते ? खैर, अब मेरा रागरूपी ज्वर उतर चला है और मैं मोह नोंदसे जाग गया हूँ। अतः अब ध्यानरूपी तलवारकी धारसे कर्म-शत्रुओंको मारे डालता हूँ। यदि मैं अज्ञानको दूर करके अपनी आत्माका दर्शन करूं तो कर्म-शत्रुओंको क्षणभरमें जलाकर राख कर दूँ तथा प्रबल ध्यानरूपी कुठारसे पापरूपी वृक्षोंको जड़मूलसे ऐसा काहूँ कि फिर इनमें फल हो न आ सके। किन्तु मैं मोहसे ऐसा अन्धा बना रहा कि मैंने अपनेको नहीं पहचाना । मेरा आत्मा परमात्मा है परंज्योतिरूप है, जगत्में सबसे महान् है। मुझमें और परमात्मामें केवल इतना ही अन्तर है कि परमात्मामें अनन्तचतुष्टयरूप गुण व्यक्त हो चुके हैं और मेरेमें वे गुण शक्तिरूपसे विद्यमान हैं। अतः मैं उस परमात्मस्वरूपकी प्राप्तिके लिए अपनी आत्माको जानना चाहता हूँ । न मैं नारकी हूँ, न तिर्यश्च हूँ, न मनुष्य हूँ, और न देव हूँ। ये सब कर्मजन्य अवस्थाएँ हैं। मैं तो सिद्धस्वरूप हूँ। अतः अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शनं, अनन्त सुख और अनन्तवीर्यका स्वामी होनेपर भी क्या मैं कर्मरूपी विषवृक्षोंको उखाड़ कर नहीं फेंक सकता ? आज मैं अपनी शक्तिको पहचान गया हूँ और अब बाह्य पदार्थोकी चाहको दूर करके आनन्दमन्दिरमें प्रवेश करता हूँ। फिर मैं कभी भी अपने स्वरूपसे नहीं डिगूंगा । ऐसा विचारकर दृढ़ निश्चयपूर्वक ध्यान करना चाहिए। जिसका ध्यान किया जाता है उसे ध्येय कहते हैं। ध्येय दो प्रकारके होते हैं-चेतन और अचेतन । चेतन तो जीव है और अचेतन शेष पाँच द्रव्य हैं । चेतन ध्येय भी दो हैं-एक तो देहसहित अरिहन्त भगवान् हैं और दूसरे देहरहित सिद्ध भगवान् हैं। धर्मध्यानमें इन्हीं जीवाजीवादिक द्रव्योंका ध्यान किया जाता है। जो मोक्षार्थी हैं वे तो और सब कुछ छोड़कर परमात्माका ही ध्यान करते हैं। वे उसमें अपना मन लगाकर उसके गुणोंको चिन्तन करते करते अपनेको उसमें एक रूप करके तल्लीन हो जाते हैं । 'यह परमात्माका स्वरूप ग्रहण करनेके योग्य है और मैं इसका ग्रहण करनेवाला हूँ, ऐसा द्वैत भाव तब नहीं रहता। उस समय ध्यानी मुनि अन्य सब विकल्पोंको छोड़कर उस परमात्मस्वरूपमें ऐसा लीन हो जाता है कि ध्याता और ध्यानका विकल्प भी न रहकर ध्येय रूपसे एकता हो जाती है । इस प्रकारके निश्चल ध्यानको सबीज ध्यान कहते हैं । इससे ही आत्मा परमात्मा बनता है। और जब शुद्धोपयोगी होकर मुनि अपनी शुद्ध आत्माका ध्यान करता है तो उस ध्यानको निजि ध्यान कहते हैं। यह चित्त अनन्त प्रभावशाली है किन्तु स्वभावसे ही पारेकी तरह चंचल है। जैसे आक १. पारदवत् । २. अग्नी शाने च ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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