SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 376
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५४ सोमदेव विरचित [कल्प ३६, श्लो० ६२० फल्गुजन्माप्ययं देहो यदलावुफलायते। संसारसागरोत्तारे 'रत्यस्तस्मात्प्रत्यत्नतः ॥२०॥ नरेऽधीरे वृथा 'वर्म क्षेत्रेऽसस्य वृतिर्वृथा। यथा तथा वृथा सर्वो ध्यानयन्यस्य तद्विधिः॥२१॥ बहिरन्तस्तमोवातैरस्पन्दं दीपवन्मनः। यत्तत्त्वालोकनोलासि तत्स्यायानं सबीजकम् ॥६२२॥ निर्विचारावतारासु चेतःस्रोतःप्रवृत्तिषु। . आत्मन्येव स्फुरनात्मा भवेद्ध्यानमबीजकम् ॥६२३॥ [ शायद कोई यह सोचे कि यह शरीर तो अपना नहीं है और नष्ट होनेवाला है। इस लिए इसे जल्दी नष्ट कर डालना चाहिए, तो उसके लिए कहते हैं-] ___ यद्यपि इस शरीरका जन्म निरर्थक है फिर भी संसाररूपी समुद्रसे पार उतरनेके लिए यह तुम्बीकी तरह सहायक है । इसलिए प्रयत्नपूर्वक इसकी रक्षा करनी चाहिए ॥ ६२० ॥ भावार्थ-यद्यपि तुम्बीका जन्म निरर्थक होता है. वह खाने आदिके योग्य नहीं होती फिर भी नदी वगैरहको पार करनेमें वह सहायक होती है, इसीलिए लोग उसे नष्ट न करके पास रखते हैं। वैसे ही शरीर भी व्यर्थ है वह न होता तो आत्माको बारम्बार जन्म-मरणका दुःख क्यों उठाना पड़ता। फिर भी शरीरके बिना धर्म साधन नहीं हो सकता। ध्यानके लिए तो सुदृढ़ संहननवाले शरीरकी आवश्यकता होती है। अतः उसे यूँ ही नष्ट नहीं कर डालना चाहिए, किन्तु उसकी रक्षा करनी चाहिए, परन्तु यदि वह रक्षा करनेपर भी न बच सकता हो तो उसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिए। सारांश यह है कि धर्म सेवनके लिए शरीरको स्वस्थ बनाये रखना जरूरी है किन्तु धर्म खोकर शरीरको बनाये रखना मूर्खता है। जैसे कायर मनुष्यको कवच पहनाना व्यर्थ है और विना धान्यके खेतमें बाड़ लगाना व्यर्थ है, वैसे ही जो मनुष्य ध्यान नहीं करता उसके लिए ध्यानकी सब विधि व्यर्थ है ॥ ६२१ ॥ [ध्यान दो प्रकारका होता है-एक सबीज ध्यान और दूसरा अवीज ध्यान । दोनोंका स्वरूप बतलाते हैं-] सनीज ध्यान और अबीज ध्यानका स्वरूप जैसे वायुरहित स्थानमें दीपककी लौ निश्चल रहती है वैसे ही जिस ध्यानमें मन अन्तरंग और बहिरंग चंचलतासे रहित होकर तत्त्वोंके चिन्तनमें लीन रहता है उसे सबीज ध्यान कहते हैं और मनमें किसी विचारके न होते हुए जब आत्मा आत्मामें ही लीन होता है उसे निर्बीज ध्यान कहते हैं । ६२२-६२३ ।। भावार्थ-कर्मोके क्षय होनेसे ही मोक्ष होता है। और कोका क्षय ध्यानसे होता है अतः जो मुमुक्षु हैं उन्हें ध्यानका अभ्यास अवश्य करना चाहिए। ध्यान करनेके लिए मोहका त्याग आवश्यक है; क्योंकि जिसका मन स्त्री पुत्र और धनादिमें आसक्त है वह आत्माका ध्यान कैसे कर सकता है। इसलिए जो कामभोगसे विरक्त होकर और शरीरसे भी ममता छोड़कर १. 'न धर्मसाधनमिति स्थास्नु नाश्यं वपुबुधैः । न च केनापि नो रक्ष्यमिति शोच्यं विनश्वरम् ॥५॥-सागारधर्मामृत अ.८। २. कवच । ३. धान्यरहिते। ४. निश्चलम् । ५. चमत्कुर्वन् । ६. एकत्ववितकौवीचाराख्यं शुक्लध्यानम् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy