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________________ -५३८ ] उपासकाध्ययन लोकानन्दामृतजलनिधेर्वारि चैतत्सुधात्वं धत्ते यत्ते सवनसमये तत्र चित्रीयते कः ||५३५|| २३५ तीर्थोदकैर्मणिसुवर्णघटोपनीतैः पीठे पवित्रवपुषि' प्रतिकल्पितार्घे । लक्ष्मी श्रुतागमनबी जविदर्भगर्भे संस्थापयामि भुवनाधिपति जिनेन्द्रम् ||५३६ | [ इति स्थापना ] सोऽयं जिनः सुरगिरिर्ननु पीठमेतदेतानि दुग्धजलधेः सलिलानि साक्षात् । इन्द्रस्त्वहं तव सर्वप्रतिकर्मयोगात्पूर्णा ततः कथमियं न महोत्सवश्रीः ||५३७|| [ इति संनिधापनम् ] योगे ऽस्मिन्नाकनाथ ज्वलन पितृपते नैगमेये' प्रचेतो' वायो रैदेश शेषोडुपे सपरिजना यूयमेत्य ग्रहाप्राः । 3 मन्त्रैर्भूः स्वः सुधाद्यैरधिगतबलयः स्वासु दिक्षूपविष्टाः क्षेपीयः" क्षेमदक्षाः कुरुत जिनसवोत्साहिनां विघ्नशान्तिम् ||५३८ || भाग है (क्योंकि प्रत्येक जीव स्वभावसे ऊर्ध्वगामी है अतः मुक्त / होनेके पश्चात् लोकके अग्रभाग तक जाकर वहीं ठहर जाता है ) अतः यदि उसका अभिषेक सुमेरुपर्वत पर हो तो उसमें आश्चर्य ही क्या है ? इसी तरह हे जिनेन्द्र ! तुम्हारे अभिषेकके समय लोगों के आनन्दरूपी क्षीरसमुद्रका यह जल यदि अमृतपनेको प्राप्त होता है तो इसमें क्या आश्चर्य है ॥ ५३५ ॥ मणिजड़ित सोनेके घटोंसे लाये गये पवित्र जलसे जो शुद्ध किया गया है और फिर जिसे अर्घ दिया गया है तथा जिसपर 'श्री ही' लिखा हुआ है, ऐसे सिंहासनपर तीनों लोकोंके स्वामी जिनेन्द्रदेवकी मैं स्थापना करता हूँ ||५३६ ॥ पश्चा भावार्थ - पुराकर्मके पश्चात् स्थापना की जाती है । उसमें सिंहासनको शुद्ध जलसे धोने के उसपर 'श्री ही' लिखा जाता है और उसे अर्घ देकर फिर उसपर जिनविम्बको स्थापित किया जाता है । [यही स्थापना है । अब सन्निधापनको कहते हैं--] निधान यह जिनबिम्ब ही साक्षात् जिनेन्द्रदेव है, यह सिंहासन सुमेरुपर्वत है, घटोंमें भरा हुआ जल साक्षात् क्षीरसमुद्रका जल है और आपके अभिषेक के लिए इन्द्रका रूप धारण करनेके कारण मैं साक्षात् इन्द्र हूँ तब इस अभिषेक महोत्सव की शोभा पूर्ण क्यों नहीं होगी ! ॥ ५३७॥ पूजा इस अभिषेक महोत्सव में हे कुशलकर्ता इन्द्र, अग्नि, यम, नऋति, वरुण, वायु, कुबेर और ईश तथा शेष चन्द्रमा आदि आठ प्रमुख ग्रह अपने-अपने परिवार के साथ आकर और 'भूः स्वः आदि मन्त्रोंके द्वारा बलि ग्रहण करके अपनी-अपनी दिशाओंमें स्थित होकर शीघ्र ही जिन अभिषेकके लिए उत्साही पुरुषोंके विघ्नों को शान्त करें || ५३८॥ भावार्थ - इन्द्र, अग्नि, यम नैर्ऋति, वरुण, वायु, कुबेर और ईशको क्रमसे पूर्वादि आठ दिशाओंका पालक माना गया है । इसीसे इन्हें दिग्पाल कहते हैं । तथा सूर्य, शुक्र, मंगल, राहु, १. जलैः प्रक्षालिते । २. पीठस्यापि पूर्वमर्धी दीयते । ३ श्रीं । ४. ह्रीं । ५. गुम्फित । ६. पोठमेव मेरुः । ७. अभिषेक: । ८. स्नपनविधौ । ९. यम । १०. नैर्ऋति । ११. वरुण । १२. चन्द्र । १३. भूः भुवः स्वः स्त्रधा — अ० ज० ब० । १४. अधिगता प्राप्ता बलियैस्ते । १५. शीघ्रम् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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