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________________ २३६ सोमदेव विरचित [कल्प ३६, श्लो० ५३६. देहेऽस्मिन्विहितार्चने निनदति प्रारम्धगीतध्वना वातोचैः स्तुतिपाठमङ्गलरवैश्वानन्दिनि प्राङ्गणे। । मृत्लागोमयभूतिपिण्डहरितादर्भप्रसूनाक्षतै .. रम्भोभिन्न सचन्दनैर्जिनपते राजनां प्रस्तुवे ॥५३६॥ पुण्यनुमश्विरमयं नवपल्लवश्रीश्चेतः सरः प्रमदमन्दसरोजगर्भम् । वागापगा च मम दुस्तरतीरमार्गा स्नानामृतैर्जिनपतेत्रिजगत्प्रमोदैः ॥५४०॥ द्राक्षाखर्जूरचोचे नुप्राचीनाम लकोद्भवैः। ... राजादनाघ्रपूगोत्थैः स्नापयामि जिनं रसैः ॥५४१॥ आयुः प्रजासु परमं भवतात्सदैव धर्मावबोधसुरभिश्चिरमस्तु भूपः । पुष्टिं विनेयजनता वितनोतु कामं हैयंग वीनसवनेन जिनेश्वरस्य ॥५४२॥ येषां कर्मभुजङ्गनिर्विषविधौ बुद्धिप्रबन्धो नृणां येषां जातिजरामृतिव्युपरमध्यानप्रपञ्चाग्रहः । येषामात्मविशुद्धबोधविभवालोके सतष्णं मन स्ते धारोष्णपयःप्रवाहधवलं ध्यायन्तु जैनं वपुः ॥५४३।। शनि, चन्द्र, बुध और गुरु इन आठ ग्रहोंको ज्योतिषशास्त्रमें पूर्वादि आठ दिशाओंका स्वामी माना है तथा हिन्दु पद्मपुराणमें इनको पूजनेका विधान भी है । पौराणिक मतके बढ़ते हुए प्रभाव के कारण दसवीं शताब्दीसे इन दिग्पालों और ग्रहोंको अनिष्टकारक मानकर पूजाविधिमें भी स्थान दे दिया गया। ___ इस आनन्दपूरित आँगनमें, जो बाजों और स्तुति पाठकोंके मांगलिक शब्दोंसे गूंज रहा है तथा जिसमें गीतोंकी ध्वनि हो रही है, मैं इस पूजित जिनविम्बमें मिट्टी, मोवर, राख, दूर्वा, कुश, फूल, अक्षत, जल तथा चन्दनसे जिनभगवान्की नीराजना ( आरती ) करता हूँ ॥५३॥ जिनभगवान्के तीनों लोकोंको हर्षित करनेवाले स्नानजलसे मेरा यह पुण्यरूपी वृक्ष चिरकाल तक नये पल्लवोंकी शोभाको धारण करे, मेरे चित्तरूपी तालाबमें हर्षरूपी कमल विकसित हो और मेरी वाणीरूपी नदीके तटका मार्ग दुस्तर हो-उसे कोई पार न कर सके ॥५४०॥ . मैं दाख, खजूर, नारियल, ईख, प्राचीन आमलक (आँवला नामक फल ) राजादन, आम तथा सुपारीके रसोंसे जिनभगवान्का अभिषेक करता हूँ ॥५४१॥ जिनदेवके घृताभिषेकसे सदैव प्रजा दीर्घजीवी हो, राजा धर्मके ज्ञानसे सुवासित हो और भव्यजन खूब पुष्टिको प्राप्त हों ॥५४२॥ जिन मनुष्योंकी बुद्धिका विलास कर्मरूपी सपोंको निर्विष करनेमें संलग्न है, जिन मनुष्यों को जन्म, जरा, मरणको दूर करनेवाले ध्यानके विस्तारका आग्रह है तथा जिनका मन आत्माके विशुद्ध ज्ञानरूपी ऐश्वर्यको देखनेके लिए लालायित है, वे धारोष्ण दूधके प्रवाहसे धवल हुए जिनेन्द्रदेवके शरीरका ध्यान करें ॥५४३॥ १. जिनदेहे नीराजनां प्रारभे । २. भस्म । ३. दूर्वा । ४. प्रारभे । ५. भवतु इत्यध्याहार्यम् । ६. चित्तमेव तडागम् । ७. हर्ष । ८. नालिकेर । ९. प्राचीनामलकः फलविशेषः । १०. घृत ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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