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________________ २३४ सोमदेव विरचित [कल्प ३६, श्लो० ५३० यस्मात्मादुरभूच्छ्रतिः सुकृतिनो यस्य प्रसादाज्जना ___ यास्मन्नैष भवाश्रयो व्यतिकरस्तस्यारभे स्नापनाम् ॥५३०॥ वीतोपलेपर्वपुषो न मलानुषङ्गलोक्यपूज्यचरणस्य कुतः परोऽयः । मोक्षामृते धृतधियस्तव नैव कामः स्नानं ततः कमुपकारमिदं करोतु ॥५३॥ तथापि स्वस्य पुण्यार्थ प्रस्तुवेऽभिषवं तव । को नाम सूपकारार्थ फलार्थी विहितोद्यमः ।।५३२॥ ....... - [इति प्रस्तावना] रत्लाम्बुभिः कुशकशनुभिरात्तशुद्धौ भूमौ भुजङ्गमपतीनमृतैरुपास्य । कुर्मः प्रजापतिनिकेतनदिङ्मुखानि दूर्वाक्षतप्रसवदर्भविदर्भितानि ॥५३३॥ पाथःपूर्णान्कुम्भान्कोणेषु सुपल्लवप्रसूनार्चान् । दुग्धाब्धीनिव विदधे प्रवालमुक्तोल्वणांश्चतुरः ॥५३४॥ [इति पुराकर्म ] यस्य स्थानं त्रिभुवनशिरः शेखराग्रे निसर्गा त्तस्यामर्त्यक्षितिभृति भवेन्नाद्भुतं स्नानपीठी"। द्वारा यह लोक सनाथ है, जिसे देवतागण नमस्कार करते हैं, जिससे श्रुत (आगम )का प्रादुर्भाव हुआ है, जिसके प्रसादसे मनुष्य पुण्यशाली होते हैं, तथा जिसमें ये सांसारिक दुःख-सुखादि नहीं हैं, उस जिनेन्द्रके अभिषेकको मैं प्रारम्भ करता हूँ ॥३०॥ __ हे जिनेन्द्र ! शारीरिक मलसे रहित होनेके कारण आपका मैलसे कोई सम्बन्ध नहीं है, आपके चरण तीनों लोकोंके द्वारा पूज्य हैं,अतः उससे भी उत्कृष्ट पूज्य कैसे हो सकता है ? आपका मन मोक्षरूपी अमृतके पानमें निमग्न है अतः आप कामसे भी दूर हैं, अतः यह स्नान आपका क्या उपकार कर सकता है ? अर्थात् स्नान या अभिषेकके तीन प्रयोजन हो सकते हैं, शारीरिक मलको दूर करना, जलार्चनके द्वारा पूज्यताका समावेश तथा गार्हस्थिक कामादि सेवनगत दोषोंकी विशुद्धि । किन्तु जिनेन्द्र देवका परम औदारिक शरीर मल रहित होता है, वे कामादिका भी सेवन नहीं करते हैं तथा तीनों लोक उनकी पूजा करते हैं अतः जल स्नानसे उन्हें कोई प्रयोजन नहीं रहता ॥३१॥ फिर भी मैं अपने पुण्यसंचयके लिए आपके अभिषेकको आरम्भ करता हूँ। क्योंकि ऐसा कौन फलार्थी-फलका इच्छुक है जो सम्यक् उपकारके लिए प्रयत्न न करना चाहता हो ॥५३२॥ [इस प्रकार प्रस्तावना कर्म समाप्त हुआ। आगे पुराकर्मको कहते हैं] पुराकम रन सहित जलसे तथा कुश और अग्निसे शुद्ध की गयी भूमिमें दुग्धसे नागेन्द्रोंको संतृप्त करके पूर्वादि दश दिशाओंको दूर्वा, अक्षत, पुष्प और कुशसे युक्त करता हूँ ॥५३३॥ वेदीके चारों कोनोंमें पल्लव और फूलोंसे सुशोभित, जलसे भरे हुए चार घटोंको स्थापित करता हूँ, जो मूंगे और मोतीसे युक्त होनेके कारण क्षीरसमुद्रकी तरह हैं ॥५३४॥ स्थापना जिस जिनेन्द्रका निवासस्थान स्वभावसे ही तीनों लोकोंके मस्तकके ऊपर लोकके अग्र १. विगतांगमलस्य । २. अपि तु न किमपि । ३. रत्नसहितजलैः । कुम्भमध्ये भंगारे वा पञ्चरत्नं क्षिप्यते । ४. दर्भाग्निप्रज्वालन । ५. गृहीत । ६. सिक्त्वा । ७. ब्रह्मस्थानपीठस्थापनप्रमुखानि । ८. गुम्फितानि । ९. जल। १०. मेरौ। ११. सिंहासनम् ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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