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________________ सोमदेव विरचित [ कल्प ३५, श्लो० ४ॐ पूज्यतमस्य उदितोदितकुलशीलगुरुपरम्परोपा स समस्तैतिहारहस्यसारस्य श्रध्येयनाध्यापनविनियोगविनयनियमोपनयनादिक्रियाकाण्डनिःष्णातचित्तस्य चातुर्वर्ण्य संघप्रवर्धघुस्य द्विविधात्मकधर्मावबोधनविधूतैहिकव्यपेक्षासंबन्धस्य सकलवर्णाश्रमसमयसमाचारविचारोचितवचनप्रपञ्चमरीचिविदलितनिखिलजनतारविन्दिनीमिथ्यात्वमहामोहान्धकारपढलस्य ज्ञानतपःप्रभावप्रकाशित जिनशासनस्य शिष्यप्रशिष्यसंपदाशेषमिव भुवनमुद्धर्तुमुद्यतस्य भगवतो रत्नत्रयपुरः सरस्याचार्य परमेष्ठिनोऽष्टतयीमिष्टिं करोमीति स्वाहा । अपि च २२० विचार्य सर्वमैतिह्यमाचार्यकमुपेयुषः आचार्यवर्यानचमि संचार्य हृदयाम्बुजे ||४८७ ॐ श्रीमद्भगवदर्ह द्वदनारविन्दविनिर्गतद्वादशाङ्गचतुर्दशपूर्वप्रकीर्णविस्तीर्णश्रुतपारावार चार घातिकर्म नष्ट हो जानेपर आत्मामें अनन्तदर्शन अनन्तज्ञान आदि गुण प्रकट हो जाते हैं । ये परनिरपेक्ष होते हैं, इन्द्रियादिकी सहायता के बिना केवल आत्मासे ही होते हैं तथा सदा स्थायी होते हैं । शेष चार अघातिकर्मोंके नष्ट हो जानेपर शरीर भी छूट जाता है किन्तु मुक्तावस्था में शरीर के नहीं होनेपर भी आत्माका प्रायः कुछ न्यून वही आकार बना रहता है, जो पूर्व शरीरका आकार होता है । आत्मा स्वभावसे अमूर्तिक है अतः आत्मा में रूप रस वगैरह गुण नहीं होते क्योंकि रूपादि पुद्गलके गुण हैं। इसलिए मुक्तात्मा इन गुणोंसे शून्य होता है और आत्मिक गुणोंसे सम्पन्न होता है । सिद्ध परमेष्ठी तीर्थकरों के भी गुरु होते हैं, क्योंकि तीर्थङ्कर उन्हीं के स्मरणपूर्वक जिनदीक्षा धारण करते हैं, इस लोकमें अन्य कोई उनका गुरु नहीं होता । आचार्यपूजा जो अत्यन्त पूजनीय हैं, अति उन्नत कुल शीलवाले और गुरुपरम्परा से प्राप्त समस्त शास्त्रों'के रहस्य के ज्ञाता हैं, पढ़ना-पढ़ाना, व्याख्यान, विनय, नियम, दीक्षादान आदि क्रियाकाण्डमें जो परम प्रवीण हैं, मुनि आर्यिका और श्रावक-श्राविकाके भेदसे चार प्रकारके संघकी वृद्धिमें धुरन्धरअग्रेसर है, गृहस्थ और मुनिधर्मके ज्ञानके कारण जो इस लोकसम्बन्धी समस्त सम्बन्धोंसे निरपेक्ष होते हैं, जो समस्त वर्णों और आश्रमोंकी आगमिक क्रियापद्धतिके विचारसे पूर्णं वचनरूपी किरणोंके द्वारा समस्त जनतारूपी कमलिनीके महामिथ्यात्व मोहरूपी अन्धकारपटलको दूर करते हैं, अपने ज्ञान और तपके प्रभावसे जिन शासनको प्रकाशित करते हैं, शिष्य-प्रशिष्य परम्परा के द्वारा समस्त लोकका उद्धार करने में तत्पर रहते हैं, रत्नत्रयसे शोभित उन भगवान् आचार्य परमेष्ठीकी मैं आठ करता हूँ । समस्त शास्त्रोंका विचार करके आचार्य पदको प्राप्त हुए श्रेष्ठ आचार्यों को अपने हृदय - कमल में विराजित करके पूजा करता हूँ ||४८७॥ उपाध्यायपूजा जो श्रीमान् भगवान् अर्हन्त देवके मुखकमलसे निकले हुए बारह अङ्गों, चौदह पूर्वों और १. उदिगोतोदित - अ० ज० मु० । जात्याचरणशुद्धम् । २. पठन-पाठन । ३. व्याख्यानम् । ४. दीक्षाव्रतारोपणादिविधिः । ५. यतिश्रावकाश्रय ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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