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________________ -४८६ ] उपासकाध्ययन ॐ सहचरसमीचीनचा त्रियविचारगोचरोचितंहिताहितप्रविभागस्य अतएव परनिरपेक्षतया स्वयंभुवः सलिलान्मुक्ताफलमिव उपलादिव च काञ्चनमेस्मादेवात्मनः कारणविशेषोपसर्पणवशादाविर्भूतमखिलमलविलयलब्धात्मस्वभावमसममसहायमक्रममवधीरिता - न्यसंनिधिव्यवधानमनवधिमयलसाध्यमवसितातिशयसीमानमात्मस्वरूपैकनिबन्धनमन्तःप्र - काशमध्यासितवन्तमनन्तदर्शनवैशद्यविशेषसाक्षात्कृतसकलवस्तुसर्वस्वमनवसानसुखस्रोतस. मपर्यन्तवीर्यमचाक्षुषसूक्ष्मावभासमसदृशाभिनिवेशावगाहमलघुगुरुव्यपदेशमपगतबाधापराकारसंक्रममतिविशुद्धस्वभावतया निवृत्ताशेषशारीरद्वारतया च मनाङमुक्तपूर्वावस्थान्तरमरूपरसगन्धशब्दस्पर्शमशेषभुवनशिरःशेखरायमाणपद विश्वंभरमुपशान्तसकलसंसारदोषप्रसरं परमात्मानमुपेयुषो गुरुणापि प्रतिपन्नगुरुभावस्य रत्नत्रयपुरःसरस्य भगवतः सिद्धपरमेष्ठिनोऽष्टतयोमिष्टि करोमीति स्वाहा। अपि च प्रत्न कर्मविनिर्मुक्तानूनकर्मविवर्जितान् । यत्नतः संस्तुवे सिद्धान् रत्नत्रयमहीयसः॥४८६॥ सिद्धपूजा जिनका हित-अहितका विवेक एक साथ रहनेवाले सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्रके विचारके विषयके योग्य है, इसीलिए जो परनिरपेक्ष होनेके कारण स्वयंभू हैं, जैसे जलसे मोती और पाषाणसे स्वर्ण प्रकट होता है वैसे ही इसी संसारी आत्मासे विशेषकारणोंके मिलनेसे जो प्रकट हुआ है, समस्त कर्ममलके नष्ट हो जानेसे जो अपने स्वभावको प्राप्त है, सहाय रहित, क्रमरहित, अन्यकी निकटता और दूरीको तिरस्कृत कर देनेवाले, सीमारहित, अयत्नसाध्य, निरतिशय, आत्मस्वरूप ही जिसका एकमात्र कारण है, जो अन्तःप्रकाशरूप है, अनन्त दर्शनकी विशेष निर्मलताके कारण जिसने समस्त वस्तुओंके सारका साक्षात्कार कर लिया है, जो अनन्त सुखका स्रोत है, अनन्तवीर्यसे युक्त है, चक्षुके अगोचर सूक्ष्म पदार्थोंको जानता है, क्षायिक सम्यक्त्व, अवगाहनत्व और अगुरु-लघु गुणोंसे विशिष्ट है, बाधा तथा परके आकार रूप संक्रमण करनेसे रहित है, अत्यन्त विशुद्ध स्वभाव होनेसे तथा समस्त शारीरिक द्वारोंके हट जानेसे जो.पूर्व अवस्थासे छुटकारा पा चुका है, जो रूप, रस, गन्ध, शब्द और स्पर्शसे रहित है, जिसके चरण समस्त लोकोंके सिरपर अर्थात् ऊपर मुकुटके तुल्य शोभायमान है, और जिसके समस्त सांसारिक दोष उपशान्त हो गये हैं, ऐसे परमात्मा पदको प्राप्त कर लेनेवाले, और परमगुरु तीर्थक्कर भी जिन्हें गुरु मानते हैं, रत्नत्रयसे शोभित उन सिद्ध परमेष्ठीकी मैं आठ द्रव्योंसे पूजा करता हूँ। पुराने कोंके बन्धनसे मुक्त हुए और नवीन कोंके आस्रवसे रहित तथा रत्नत्रयसे महान् उन सिद्धोंका मैं यत्नपूर्वक स्तवन करता हूँ ॥४८६॥ भावार्थ-ऊपर सिद्ध परमेष्ठीका स्वरूप बतलाया है। संसारी आत्मा ही स्वयं कारण मिलनेपर पहले अर्हन्त पर्यायको प्राप्त करता है और तत्पश्चात् सिद्ध पर्यायको प्राप्त करता है। १. मतिश्रुतावधिश्च । २. पूर्वसंसारिणः । ३. आगमन । ४. मसमस-अ० ज० मु० । ५. अभिनिवेश: सम्यक्त्वम् । ६. स्थानम् । ७. परमतीर्थङ्करदेवेन । ८. पुरातन ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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