SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 338
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१६ सोमदेव विरचित [कल्प ३४, श्लो० ४७७जातयोऽनादयः सर्वास्तत्कियापि तथाविधाः। श्रुतिः शास्त्रान्तरं वास्तु प्रमाणं कात्र नः क्षतिः ॥४७॥ स्वजात्यैव विशुद्धानां वर्णानामिह रत्नवत् । तक्रियाविनियोगाये जैनागमविधिः परम् ॥४७८॥ यद्भवभ्रान्तिनिर्मुक्तिहेतुधीस्तत्र दुर्लभा । संसारव्यवहारे तु स्वतःसिद्ध वृथागमः ॥४७॥ तथाच सर्व एव हि जैनानां प्रमाणं लौकिको विधिः। यत्र सम्यक्त्वहानिर्न यत्र न व्रतदूषणम् ॥४०॥ इत्युपासकाध्ययने स्नानविधिर्नाम चतुस्त्रिंशत्तमः कल्पः । सब जातियाँ अनादि हैं और उनकी क्रिया भी अनादि है। उसमें वेद अथवा अन्य शास्त्र प्रमाण रहो, उससे हमारी कोई हानि नहीं है ।।४७७॥ रत्नकी तरह जो वर्ण अपने जन्मसे ही विशुद्ध होते हैं उन्हें उनकी क्रियाओंमें लगानेके लिए जैनआगमोंका विधान ही उत्कृष्ट है ॥४७८॥ क्योंकि शास्त्रान्तरों में संसार भ्रमणसे छूटनेके कारणोंमें मनको लगानेवाले ज्ञानका पाया जाना दुर्लभ है। रहा लौकिक व्यवहार, वह तो स्वयं सिद्ध है उसको बतलानेके लिए किसी आगमकी आवश्यकता नहीं है ॥४७९॥ तथा सभी जैनधर्मानुयायियोंको वह लौकिक व्यवहार मान्य है जिससे उनके सम्यक्त्वमें हानि न आती हो और न उनके व्रतोंमें दूषण लगता हो ॥४८०॥ भावार्थ-ऊपर ग्रन्थकारने भोजनकी शुद्धिके लिए भोजनसे पहले होम और भूतबलिका विधान किया है। हिन्दू स्मृति-प्रन्थोंमें गृहस्थके करने लायक पाँच यज्ञोंमें से एक भूतयज्ञ भी बतलाया है। कौवा आदि जीवोंके लिए भोजन निकालनेको भूतयज्ञ कहते हैं, क्योंकि स्मृतिमें कहा है-'भूतेभ्यो बलिहरणं भूतयज्ञः' । यह हिन्दू स्मृतियोंकी चीज ग्रन्थकारने यहाँ क्यों दी ? ऐसी शंका प्रत्येक पाठकको हो सकती है क्योंकि जैन परम्परामें इस तरहका कोई विधान नहीं है। उसका समाधान करनेके लिए ग्रन्थकार कहते हैं कि यह कोई धार्मिक विधि नहीं है। इसके करनेसे धर्म नहीं होता और न करनेसे अधर्म नहीं होता। किन्तु यह तो एक लौकिक शिष्टाचार है । गृहस्थका धर्म लौकिक भी होता है और पारलौकिक भी होता है । लौकिक धर्म लोकके रीति-रिवाजके अनुसार होता है । उसके लिए किसी शास्त्रीय विधानकी आवश्यकता नहीं है। जैसे जातियाँ हमेशासे चली आती हैं वैसे ही उनके रीति-रिवाज भी हमेशासे चले आते हैं। शायद कोई कहे कि उन जातियोंका चला आता हुआ रीति-रिवाज़ तो शास्त्रसम्मत है, हिन्दू-स्मृति-ग्रन्थोंमें उनका विधान है ? तो ग्रन्थकार कहते हैं कि वह प्रमाण रहो, हमें उससे कोई हानि नहीं है; क्योंकि जो लोकाचार जैनोंके सम्यक्त्वमें हानि नहीं पहुँचाता और न उनके व्रतोंमें दूषण लाता है वह हमें मान्य है। अतः यदि कोई लोकाचार अन्य शास्त्रोंसे प्रमाणित है और जैन भी उसे मानते हैं किन्तु उसके माननेसे न उनके सम्यक्त्वमें हानि आती है और न व्रतोंमें दूषण लगता है तो उसमें कोई बुराई नहीं है। किन्तु इस लोकाचारके सिवा जो वास्तविक १. निश्चयाय । २. संसारभ्रमणमोचनमतिदुर्लभम् । ३. विवाहसूतकादिः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy