SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 337
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ -४७६ ] उपासकाध्ययन २१५ बहिर्विहत्य संप्राप्तो नानाचम्य' गृहं विशेत् । स्थानान्तरात्समायातं सर्वे प्रोक्षितमाचरेत् ॥४७१।। आप्लुतः संप्लुतस्वान्तः शुचिवासो विभूषितः । 'मौनसंयमसम्पन्नः कुर्याद्देवार्चनाविधिम् ॥४७२॥ दन्तधावनशुद्धास्यो मुखवासोचिताननः । असंजातान्यसंसर्गः सुधीर्देवानुपाचरेत् ॥४७॥ होमभूतंबली पूर्वरुक्तौ भक्तविशुद्धये । भुक्त्यादौ सलिलं सर्पिरूधै स्यं च रसायने म् ॥४७४॥ एतद्विधिन धर्माय नाधर्माय तदक्रियाः । दर्भपुष्पाक्षतश्रोत्रवन्दनादिविधानवत् ॥४७॥ द्वौ हि धौं गृहस्थानां लौकिकः पारलौकिकः । लोकाश्रयो भवेदाधः परः स्यादागमाश्रयः ॥४७६॥ जब बाहरसे घूम कर आये तो बिना कुल्ला किये घरमें नहीं जाना चाहिए। दूसरी जगहसे आयी हुई सब वस्तुओंको पानी छिड़ककर ही काममें लाना चाहिए ॥४७१॥ स्नान करके, शुद्ध वस्त्र पहने, फिर शरीरको आभूषणोंसे भूषित करे और चित्तको वशमें करके मौन तथा संयमपूर्वक जिनेन्द्र देवकी पूजा करे ॥४७२॥ दातौनसे मुख शुद्ध करे और मुखपर वस्त्र लगाकर दूसरोंसे किसी तरहका सम्पर्क न रखकर जिनेन्द्र देवकी पूजा करे ॥४७३॥ पूर्व पुरुषोंने भोजनकी शुद्धि के लिए भोजन करनेसे पहले होम और भूतबलिका विधान किया है। भोजन करनेसे पहले होम पूर्वक अर्थात् प्राणियोंके उद्देश्यसे कुछ अन्न अलग निकालकर रख देना चाहिए । तथा भोजनके पहले पानी, घी और दूधके सेवनको रसायन कहा है। कुश, पुष्प, अक्षत, स्तवन, वन्दना वगैरह के विधानकी तरह उक्त विधि करनेसे न कोई धर्म होता है और न करनेसे न कोई अधर्म होता है। अर्थात्-ऊपर भोजनकी शुद्धिके लिए जो क्रिया बतलायी है उसके करनेसे धर्म नहीं होता और न करनेसे अधर्म नहीं होता है ॥४७४-४७५॥ ___गृहस्थोंका धर्म दो प्रकारका होता है—एक लौकिक और दूसरा पारलौकिक । इनमें-से लौकिक धर्म लोकको रीतिके अनुसार होता है और पारलौकिक धर्म आगमके अनुसार होता है ॥४७६॥ १. 'सुप्त्वा क्षुत्वा च भुक्त्वा च निष्ठीव्योक्त्वाऽनृतानि च । पोत्वापोऽध्येष्यमाणश्च आचमेत् प्रयतोऽपि सन् ॥ १४५ ।।-मनुस्मृति ५ अ० । 'बहिरागतो नानाचम्य गृहं प्रविशेत् ॥ १३ ॥-नोतिवाक्यामृत पृ० २५२ । 'बहिविहृत्य"। स्थानान्तरात् समानीते'।-धर्मरत्ना० पृ० १०३ । २. वस्तु । ३. अभ्युक्षित्वा । ४. स्नातः । ५. संहृतचित्तः। ६. मोनसंयमसम्पन्नैर्देवोपास्तिविधीयताम् । दन्तधावनशुद्धास्यघौतवस्त्रपवित्रितैः ॥२२६॥-प्रबोधसार। ७. वासोवृत्ताननः-सागारधर्मा० पृ. ६३'के पादटिप्पणमें पाठ है। ८. भोजनावसरे किञ्चिदग्नी किञ्चित् प्राङ्गणेऽन्नं क्षिप्यते । 'अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम् । होमो देवो बलि तो नयज्ञोऽतिथिपूजनम् ।। ७०।--मनुस्मृति, ३ अ०। ९. 'घृताधरोत्तरभुजानोऽग्नि दृष्टि च लभते ॥३४॥-नीतिवाक्यामृत, पृ० २५३ । १०. दुग्धम् । ११. मथितम् । १२. शकुनाथं वन्द्यते ( ? ) -स्तोत्र वन्दनादि' पाठ सम्यक् प्रतीत होता है । क्योंकि प्रबोधसार ( पृ० १९४ ) में लिखा है-'पुष्पादिः स्तवनादिर्वा नैव धर्मस्य साधनम्' । १३. पारलौकिकः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy