SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपासकाध्ययन बये देवसेवाधिकृताः संकल्पिताप्तपूज्यपरिग्रहाः कृतप्रतिमापरिप्रहाच । संकल्पोऽपि वलफलोपलादिष्विव न समयान्तरप्रतिमासु विधेयः । यतः शुद्ध वस्तुनि संकल्पः कन्याजन इवोचितः। नाकारान्तरसंक्रान्ते यथा परपरिग्रहे ॥४८॥ तत्र प्रथमान् प्रति समयसमाचारविधिमभिधास्यामः । तथा हि अनंतनुर्मध्ये दक्षिणतो गणधरस्तथा पश्चात् । श्रुतगी साधुस्तदनु च पुरोऽपि हगवगमवृत्तानि ॥४८२॥ भूर्जे फलके सिवये शिलातले सकते क्षितौ व्योम्नि । हृदये चैते स्थाप्याः समयसमाचारवेदिभिनित्यम् ॥४८३॥ रत्नत्रयपुरस्काराः पञ्चापि परमेष्ठिनः ।। भव्यरत्नाकरानन्दं कुर्वन्तु भुवनेन्दवः॥४४॥ धर्म है वह तो जैन शास्त्रोंके सिवा अन्य शास्त्रोंमें नहीं पाया जाता। वह वास्तविक धर्म है, संसारभ्रमणसे छूटनेके जो कारण हैं उनमें मनका लगना । इस धर्मका सच्चा व्याख्यान तो जैन शास्त्रोंमें ही है और वे ही इस विषयमें प्रमाण हैं। अतः भोजनके प्रारम्भमें भूतबलिका विधान कोई धार्मिक विधान नहीं है वह तो लोकाचार है । जैन घरानोंमें तवेकी पहली रोटी मन्दिरके माली को देनेकी जो प्रथा है वह शायद उसी लोकाचारका जैन रूप है। इस प्रकार उपासकाध्ययनमें 'स्नानविधि' नामका चौतीसवाँ कल्प समाप्त हुआ। देवपूजाकी विधि देवपूजाके दो रूप हैं-एक तो पुष्प वगैरहमें जिन भगवान्की स्थापना करके पूजा की जाती है और दूसरे, जिन-विम्बोंमें जिन भगवान्की स्थापना करके पूजा की जाती है । किन्तु जिस प्रकार पुष्प फल या पाषाणमें स्थापना की जाती है उस तरह अन्य देव हरिहरादिककी प्रतिमामें जिन भगवान्की स्थापना नहीं करना चाहिए, क्योंकि जैसे शुद्ध कन्यामें ही पत्नीका संकल्प किया जाता है दूसरेसे विवाहितमें नहीं, वैसे ही शुद्ध वस्तुमें ही जिन देवकी स्थापना करना उचित है, जो अन्यरूप हो चुकी है उसमें स्थापना करना उचित नहीं है ॥४८१॥ ऊपर जो दो प्रकारके पूजक कहे हैं उनमें से पुष्पादिकमें जिन भगवान्की स्थापना करके पूजा करनेवालोंके लिए पूजाविधि बतलाते हैं-पूजाविधिके ज्ञाताओंको सदा अर्हन्त और सिद्धको मध्यमें, आचार्यको दक्षिणमें, उपाध्यायको पश्चिममें, साधुको उत्तरमें और पूर्वमें सम्यग्दर्शन, सम्यकज्ञान और सम्यक्चारित्रको क्रमसे भोजपत्रपर, लकड़ीके पटियेपर, वस्त्रपर, शिलातलपर, रेत निर्मित भूमिपर, पृथ्वीपर, आकाशमें और हृदयमें स्थापित करना चाहिए ॥४८२-४८३॥ सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्ररूपी रत्नत्रयसे भूषित और जगत्के लिए चन्द्रमाके तुल्य पाँचों परमेष्ठी भव्य जीवरूपी समुद्रको आनन्दित करें ॥४८४॥ १. द्विप्रकाराः । २. अन्यदेवहरिहरप्रतिमाविषये जिनसंकल्पो न क्रियते । ३. संकल्पिताप्तपूज्यपरिग्रहान् प्रति धर्मोपदेशं दास्यामः । ४. सिद्धः। ५. आचार्यः । ६. उपाध्यायः । ७. वस्त्रे । ८. पुलिने ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy