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________________ -४४६] उपासकाध्ययन २०६ व्यावृत्तः सुदत्तः तातोपदेशमनिश्रेयसमवस्यन् यतो राजपरिगृहीततृणमपि गृहीतं काञ्चनीभवति संपद्यते च पूर्वोपार्जितस्याप्यर्थस्यापहाराय प्राणसंहाराय घेति जातमतिर्नेकामपीष्टकां समग्रहीत् । महालोभलोलतान्धः पिण्याकगन्धस्तस्याः पुरोऽपस्नायागतः सुतमप्रासीत्-'वत्स, कियतीः खलु त्वमिष्टकाततीः पर्यग्रहीः ?' स्तेययोगविनिवृत्तः सुदत्तः-'तात, नैकामपि ।' प्रादुर्भवहीर्घदुर्गतिदुरितबन्धः पिण्याकगन्धः समर्थे सदाचारकृतार्थे पुण्यभाजि तुजि परमुत्तरमपश्यन् , 'यदीमौ क्रमी परिक्रमणक्षमी मम नाभविष्यतां तदा कर्थकारमहं मन्मनोरथवन्द्यां काकन्यामगमिष्यम् । अत एतावात्र श्रीविरामावही द्रोही' इति विचिन्त्योद्वर्तनं वर्तयन्त्याः स्ववासिन्याः करादाक्षिप्तशरीरेण शिलापुत्रकेण ती जर्जरितावजीजनत् । पतञ्च वैदेहकाव्यजनपरिजनात्माचीनवर्हिनिमः तितिरमणीकरिणीभः रत्नप्रभः श्रुत्वा, वासीवक्रण शिल्पिभिर्विधापितेष्टकातक्षणः सुवर्णत्वं निर्णीय विहितसर्वस्वापहारं सनिकारं नगरजनोचार्यमाणदुरपवादप्रबन्धं पिण्याकगन्धं निरवासयत् । 'इन्द्रयमस्थानं हि गुणदोषयोर्महीपतयः' इति नीतिवाक्यमनुस्मृत्य मूलधनप्रदानेनान्धयांगतनिवासनिवेदनेन च परद्रव्यादाननिवृत्तं सुदत्तं साधु समाश्वासयत् । स तथा निर्वासितः सनातनरकनिषेकनिबन्धः कृतप्रका ___ सुदत्त बुरे कामोंसे बचता था। उसे अपने पिताका उपदेश अहितकर प्रतीत हुआ। उसने विचारा कि राजाका तृण भी सोना हो जाता है और उसके लेनेसे पहलेका सञ्चित धन भी हर लिया जाता है और प्राण भी चले जाते हैं । अतः उसने एक भी ईट नहीं ली। महालोभी पिण्याकगन्ध मृतक स्नान करके लौटा तो उसने पुत्रसे पूछा-'बेटा ! तुमने कितनी ईटें ली हैं ? चोरीके त्यागी सुदत्तने उत्तर दिया-"पिता जी ! एक भी नहीं।" घोर दुर्गतिके कारण पापका बन्ध करनेवाले पिण्याकगन्धको अपने सदाचारी पुण्यशाली पुत्रकी बात सुनकर कोई उत्तर नहीं सूझा । __तब “यदि मेरे ये दोनों पैर चलनेके लायक न होते तो मैं अपने मनोरथकी घातक काकन्दीको कैसे जाता । इसलिए ये दोनों ही लक्ष्मी समागमके शत्रु हैं।" ऐसा सोचकर उसने उबटन पीसती हुई अपनी पत्नीके हाथसे लोढ़ा लेकर अपने पैर तोड़ डाले। राजा रत्नप्रभने उसके आदमियोंसे यह बात सुनकर शिल्पियोंसे उन ईटोंको तुड़वाया तो वे सोनेकी निकली । उसने तुरन्त ही पिण्याकगन्धका सर्वस्व लुटवा लिया और उसे बेइज्जत करके देश निकाला दे दिया। "राजा लोग गुणवान्के लिए इन्द्र हैं और दोषीके लिए यमराज हैं।" इस नीतिके अनुसार राजा रत्नप्रभने पराये धनको न लेनेके कारण सुदत्तको उसका मूल धन और वंशपरम्परागत निवास स्थान देकर धीरज बंधाया। १. संसारकारणं जानन् । २. मृतकस्नानं कृत्वा । ३. केन प्रकारेण । ४. पादौ । ५. गृहीत । ६. वणिक् । ७. इन्द्रसमानः । ८. कारित । ९. निर्घाटितवान् । १०. वंशागत-आवासानुमतेन । २७
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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