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________________ २०० सोमदेव पिरचित [कल्प ३२, श्लो० ४४९सति एकदा सलपमोकमलिनीपरिमलनकलभो रत्वपमो राजसिन्धुरप्रेधावसन्दर्शनप्रासादसंपादनाय अवधाश्रयवृत्तस्य ब्रह्मदत्तस्य महीपतेः कालेन स्थण्डिलतालुतावकाशे भवनप्रदेश भूगोषनं विषापयन्नेतदास्थानमण्डपाभोगबन्धजुषः प्रकामोषरदोषकलुषवपुषः संपूर्णविस्तारपुषः प्रथिमगुणविशिष्टकाः सुवर्णेष्टकाः समालोक्य बहिर्निकामं कलङ्कमलिनत्वादितरेष्टकाविशिष्टत्वमाकलयन् 'एताः खलु चैत्यालयनिर्माणाय योग्याः' इति घेतसैकत्र स्तूपतामामाययामास। ... अत्रान्तरे समस्तमितंपचपुरोगमसर्गन्धः पिण्याकगन्धः सरभसमापततामिष्टकावहतां "वैवधिकनिवहानां सायंसमये मार्गविषये पतितामेकामिष्टकामवाप्य 'चलनक्षालनदेशे न्यधात् । तत्र च "प्रतिघनमनिसंघर्षादशेषकालुष्यमो' भर्मनिर्मितत्वमवेत्य तैस्तैः प्रलोभनवस्तुभिः काचवहानां विहितोपचारस्ताः संगृखन् श्रुतस्वनीयापायोदन्तः स्फा*यमानमनोमन्युकृतान्तः" पिण्याकगन्धः 'पुत्र, निखिलकलावदातचित्त सुदत्त, भवत्पितस्वसुः सुतशोकशंकुशमनाय मयावश्यं तत्र गन्तव्यमपस्नातव्यं च । ततस्त्वयाप्येताः परि"स्कन्दलोकप्रलोभनेन साधु संग्रहीतव्याः' इत्युपहरे व्याहृत्य सकलजगव्यवहारावतारत्रिवेद्यां काकन्यां तोकशोकभूयिष्ठायास्तूर्ण कनिष्ठाया दर्शनार्थमगच्छत् । असद्व्यवहार ___ एक बार राजा रत्नप्रभने हाथीकी दौड़ देखनेके लिए एक महल बनवानेका विचार किया और उसके लिए स्वर्गीय राजा ब्रह्मदत्तके महलके खण्डहरोंवाले प्रदेशको चुना । जब उन खण्डहरों को ढवाया गया तो उसके सभामण्डपसे बहुत-सी बड़ी-बड़ी सोनेकी ईटे निकलीं। किन्तु वे बहुत दिनोंसे मिट्टीमें दबी रहनेके कारण एक दम काली पड़ गयी थीं । अतः उन्हें भी अन्य पुरानी ईटोंकी तरह साधारण ईट मानकर और वह सोचकर कि ये चैत्यालय बनवानेके लायक हैं एक जगह उनका ढेर लगवा दिया । इसी बीचमें लुब्धक शिरोमणि पिण्याकगन्ध संध्याके समय उधर गया। जल्दी-जल्दी ईटे ढोने वालोंसे मार्ग में एक ईट गिर पड़ी वह उसे उठा लाया और लाकर पैर धोनेके स्थानपर उसे डाल दिया । प्रतिदिन पैरोंकी रगड़से उसकी कलौसी जाती रही । तब उसे मालम हुआ कि यह तो सोनेकी ईंट है । फिर तो वह ईटें ढोने वालोंको तरह-तरहका लालच देकर ईटे इकट्ठी करने लगा। एक दिन पिण्याकगन्धने अपने भानेजकी मृत्युका समाचार सुना । उसे बड़ा रंज हुआ । पुत्रको बुलाकर कहा-"पुत्र सुदत्त ! तुम्हारी बुआके पुत्र-शोकको शान्त करनेके लिए मुझे अवश्य जाना है और मृतक स्नान भी करना है । अतः तुम भी बोझा ढोने वालोंको लालच देकर सोनेकी ईटें संग्रह करते रहना।" इस तरह एकान्तमें पुत्रको समझाकर पिण्याकगन्ध शीघ्र ही अपनी छोटी बहनसे मिलनेके लिए काकन्दीकी ओर चला गया । १. -प्रवाधाव- अ० ज० मु० । २. मृतस्य । ३. विस्तारं पुष्णाति याः। ४. पृथु । ५. सदशः । ६. आगच्छताम् । ७. वार्तावहो वैवधिकः, विवधो भारः पर्याहारो वा तं वहतीति वैवधिकः । ८. सन्ध्यायाम् । ९. पादधावन । १०. प्रतिदिनम् । ११. विनाशे सति । १२. इष्टकाः । १३. भागिनेयमरण । १४. वृद्धि जायमान । १५. शोकयमः । १६. मृतकस्नानं कर्तव्यम् । १७. कावटिक । १८. एकान्ते । १९. अन्यायपराङ्मुखः ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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