SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 332
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २१० सोमदेव विरचित [कल्प ३३, श्लो०४४७ मलोभसम्बन्धश्चिरायोपार्जितदुरन्तदुष्कर्मस्कन्धः पिण्याकगन्धः प्रेत्य पातालमगात् । भवति चात्र श्लोकः षष्ठयाः क्षितेस्तृतीयेऽस्मिल्ललके दुःखमल्लके । पेते पिण्याकगन्धेन धनायाविद्धचेतसा ॥४४७॥ इत्युपासकाध्ययने परिग्रहाग्रहफलफुल्लनो नाम द्वात्रिंशः कल्पः । 'दिग्देशानर्थदण्डानां विरतिस्त्रितयाश्रयम् । गुणवतत्रयं सद्भिः सागारयतिषु स्मृतम् ॥४४८॥ दिनु सर्वास्वधःप्रोर्ध्वदेशेषु निखिलेषु च । ... एतस्यां दिशि देशेऽस्मिन्नियत्येवं गतिर्मम ॥४४॥ दिन्देशनियमादेवं ततो बाह्येषु वस्तुषु । हिंसालोभोपभोगादिनिवृत्तेश्चित्तयन्त्रणा ||४५०॥ रक्षन्निदं प्रयत्नेन गुणवतत्रयं गृही। . देशसे निकाला जाकर पिण्याक गन्ध अत्यन्त लोभवश नरकायुका बन्ध तथा चिरकालके लिए अत्यन्त दुखदायी कर्मोका बन्ध करनेके कारण मरकर नरकमें गया। इसके विषयमें एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार हैधनका भूखा पिण्याक गंध मरकर छठे नरकके लल्लक नामके तीसरे पाथड़ेमें गया ॥४४७॥ इस प्रकार परिग्रहकी आसक्तिका फल बतलानेवाला बत्तीसवाँ कल्प समाप्त हुआ। ... [भब गुणव्रतोंका वर्णन करते हैं-] महापुरुषोंने दिगविरति, देशविरति और अनर्थदण्ड विरतिके भेदसे गृहस्थ व्रतियोंके तीन गुणव्रत बतलाये हैं ॥ ४४८॥ दिग्विरति और देशविरति व्रतोंका स्वरूप "अमुक-अमुक दिशामें मैं अमुक-अमुक स्थान तक ही जाऊँगा" इस प्रकार जन्म पर्यन्तके लिए जो सब दिशाओंमें और ऊपर तथा नीचे जानेकी मर्यादा की जाती है उसे दिग्विरतिव्रत कहते हैं। और (दिविरतिके भीतर कुछ समयके लिए ) जो मर्यादा की जाती है कि मैं अमुक अमुक दिशामें देश तक ही जाऊँगा, उसे देशविरति व्रत कहते हैं ॥ ४४९ ॥ इन व्रतोंसे लाम इस प्रकार दिशाओंका और देशका नियमकर लेनेसे उससे बाहरकी वस्तुओंमें लोभ, उपभोग और हिंसा वगैरहके भाव नहीं होते हैं और उसके न होनेसे चित्त संयत होता है ॥४५०॥ जो गृहस्थ प्रयत्न करके इन तीन गुणव्रतोंका पालन करता है वह जहाँ-जहाँ जन्म १. 'दिग्देशानर्थदण्डविरति...' । तत्त्वा० सू० ७-२१। २. 'दिवलयं परिगणितं कृत्वातोऽहं बहिन यास्यामि । इति संकल्पो दिग्वतमामृत्यणुपापविनिवृत्त्यै ॥ ६८ ॥' -रत्नकरण्डश्रा०। 'ऊधिो दिग्विदिक्स्थानं कृत्वा यत्परिमाणतः । पुनराक्रम्यते नैव प्रथमं तद् गुणवतम् ॥११७॥ -वराङ्गचरित। पुरुषार्थसि. श्लोक १३७ । अमित० श्रा० ६-७६ । ३. 'अवधेवहिरणुपापप्रतिविरतेदिग्व्रतानि धारयताम् । पञ्चमहाव्रतपरिणतिमणुव्रतानि प्रपद्यन्ते ॥ ७० ॥ -रत्नकरण्डश्रा०। पुरुषार्थसि. १३८ श्लो०। -अमितगति श्रा० श्लोक ६-७७ ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy