SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 329
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उपासकाध्ययन २०७ विकुरुते' इति मत्वा न कमप्यूर्धपूरं पूरयति। प्रतिचारकांश्चैवं शिक्षयति-'न तैलार्थ लवणार्थ वित्तं व्ययितव्यम् , किंतु कार्षापणं मापं चादाय आपणमुपढौक्य तदुभयं गृहीत्या पुनरिदं साधु न भवतीति प्रतिसमर्पयंस्तत्र मापे किञ्चिलाग्नमायाति तेन शारीरो विधिविधातव्यः।' परिजनार्भकान्स्वकीयांश्चैवमुपजपति-'न भवद्भिरङ्गाभ्यनार्थे भवनमुपद्रोतव्यम् , किं तु सस्नेहदे है: 'प्रतिवेशिकशिशुसंदोहैः सहातिसंबाचं योग्यम् । अतो भवतामनुपायसंनिधिः स्नानविधिः। तपायां च प्रतिवेशवेश्मप्रदीपप्रभाप्रज्वलितेन वलीकान्तावलम्बितेन काचमुकुरेण गृहाङ्गणे प्रदीपकार्य निकाय्यमध्ये च सणसरण्डप्रोते"विषमरुचिदीप्तैरुरुबूकबीजैः करोति । सकलजनसाधारणाच नवीनसका एव 'युगाः सपरिच्छदः परिदधाति । मनाग्मलीमसरागाश्च विक्रीणीते । ततोऽस्य 'वसनधावनार्थमपि न कपर्दकोपक्षयः। पर्वाणि च पुराणपल्लवकचवरापनयनकै णोत्करणातपतप्तसंघाटस्नेहद्रवेण गुडगोणीतालनकषायेण च निवर्तयति । प्रत्यामन्त्रणेन द्रविणव्ययात्परागार"भोजनावलोकनेनाश्रितजनमनोविनाशभयाचामन्त्रितो न कस्यापि निकेतने 'प्साति । एवमतीवतर्षोत्कर्षरसहायें सकलकदर्याचार्ये तस्मिजीवत्यपि मृतकल्पमनसि वसति अपने कुटुम्बको कभी भी भर पेट भोजन नहीं करने देता था। वह अपने नौकरोंको शिक्षा देता था कि 'तेल और नमकके लिए पैसा नहीं खर्च करना चाहिए, किन्तु पैसा और बर्तन लेकर दुकान पर जाना चाहिए और दोनों चीजें लेकर फिर यह कहकर लौटा देना चाहिए कि ये अच्छी नहीं हैं। ऐसा करनेसे बर्तनमें कुछ तेल और नमक लगा रह जाता है, उसीसे अपना काम चलाना चाहिए।' अपने और अपने कुटुम्बके बच्चोंसे वह कहता था कि 'तुम्हें शरीरमें तेल लगानेके लिए घरमें ऊधम नहीं मचाना चाहिए किन्तु पड़ोसियोंके तेल लगाये हुए बच्चोंके साथ खूब भिड़कर लड़ना चाहिए। इससे बिना प्रयलके ही तुम्हारे स्नानकी विधि बन जायेगी।' __उसने अपने घरकी छत पर एक दर्पण टाँग रखा था। रात्रिमें जब सामनेके घरमें दीपक जलता था तो उसका प्रकाश दर्पणमें प्रतिबिम्बित होकर घरके आगनमें पड़ता था। और उससे दीपकका काम निकल जाता था। तथा घरके अन्दर एरण्डके बीजोंको सडैरेकी लकड़ीमें पिरोकर और उन्हें आगसे जलाकर दीपकका काम लेता था। जन साधारणके पहनने योग्य कोरे वस्त्र ही वह पहनता था । और जैसे ही वह मैले होते थे उन्हें बेच डालता था। इस तरह कपड़े धोनेमें उसकी एक कौड़ी भी खर्च नहीं होती थी। पुराने पल्लवोंको कूट कर उसमेंसे रेसे निकाल देता था। घाममें संघाट (१) को सुखानेसे उसमेंसे तेल निकल आता था और गुड़के बोरोंको धोकर उनमेंसे मीठा निकाल लेता था। और इन सबसे तीज त्योहारका काम चलाता था। बदलेमें दूसरोंका निमन्त्रण करनेसे धन खर्च होगा, तथा दूसरोंके घरका भोजन देखनेसे मेरे आश्रित .. जनोंके मन मुझसे टूट जायेंगे इस भयसे निमन्त्रण आनेपर भी वह किसीके घर नहीं जीमता था। इस प्रकार वह तृष्णालु और सब कंजूसोंका सिरमौर जीते हुए भी मुर्देकी तरह जीवन व्यतीत करता था। १. पड़ोसी। २. गृहस्योपरितनभागे। ३. दर्पणेन । ४. गृहमध्ये। ५. अग्नि। ६. एरण्ड । ७. कोरावस्त्र । ८. वस्त्रप्रक्षालनार्थम। ९. दीपोत्सवादि। १०.करणो- अ० ज०म०। ११. अन्यलोकगृहे भोजनं यदि एभिर्दष्टं तदा मद्ग्रहे एते न स्थास्यन्तीति भयात् । १२. भुंक्ते ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy