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________________ - ~ - ~~ ~ ~ ~ ~ ~~ ~~~ ~~ २०६ सोमदेव विरचित [कल्प ३२, श्लो० ४४६कपोलकान्तिविजितामृतमरीचिमण्डला मणिकुण्डला नामास्य महादेवी। कुलक्रमागतात्मोपार्जितामितवित्तः सागरदत्तो नाम श्रेष्ठी। गृहस्य श्रीरिव धनश्री मास्य भार्या । सूनुरनयोाय्यार्थोपार्जनैकचित्तः सुदत्तो नाम । स महालोभविभावसुज्वलश्चित्तभित्तः सागरदत्तः पुरुषपरम्परायातायाः काञ्चनकोटेरेकस्याः स्वयमुपार्जितार्धकोटेः पतिर्भवन्नपि शालीयादिभक्तभोजने द्वितयतुषापनीतिर्धावनाश्रावणकृतिश्च, शाकपाकविधाने 'संभारादिकृतिः प्रसभाभ्यवहृतिश्च, घातपूरपूरिमावेष्टिमादिभक्षोपक्षेपे महती स्नेहापहतिरिन्धनविरतिश्च दुग्धदधिघोलरसाधुपयोगे न विक्रयाय घृतं न च तकं कडङ्गरायेति च मन्यमानः स्वयमेव प्रतिदिवसवृद्धिग्रहणाय :ध्वजलोकपाटके विहरमाणः 'प्रतिपितृप्रिययन्त्रमुपसृत्य 'श्राः, सुरभिः खल्वेष खलः संजातः' इति सस्मेरं व्याहरन्, गृहीतपिण्डिखण्डा प्रत्यवसानसमये तद्गन्धमाजिघ्रन्सन् , सर्वलोकपरिहृतमनवधि कालोषितमतिसमर्घतां" गतमकण्डितमेव च स्थालीविलीयं भवति 'तत्केवलावन्तिसोमसहायमाहरति । अत एवास्य महामोहानुबन्धस्य पिण्याकगन्ध इति जगति नाम पप्रथे। 'मुखामोदमात्रेण च प्रयोजनम् । तदलं ताम्बूलार्थमर्थव्ययेन' इति विचिन्त्य विष्णुतरुत्वच: "कालवल्लीदलोतरास्वादरुचः कंवलयति । 'अर्धघाणोदरः परिवारः कदाचिदपि देहे हदये वा न मनागपि पटरानी मणिकुण्डला थी। नगरसेठ सागरदत्त था। उसके पास बहुत धन था। नगरसेठकी पत्नीका नाम धनश्री था। उनके सुदत्त नामका पुत्र था वह सदा न्यायपूर्वक ही धन कमाता था । महालोभी सागरदत्त यद्यपि वंश-परम्परासे प्राप्त एक करोड़ स्वर्णमुद्राओंका और स्वयं उपार्जित आधे करोड़ स्वर्णमुद्राओंका स्वामी था, फिर भी वह सोचता था कि यदि चावलका भात खाया जाये तो उसके छिलके दूर करने होंगे और धोने-धानेमें भी कुछ कमी अवश्य होगी, यदि शाक पकाया जाये तो मसाला वगैरह खर्च होगा और उसके साथमें अधिक अन्न खाया जायेगा, घेवर, पूरी वगैरह व्यञ्जनोंके बनानेमें घी खर्च होगा और ईधन भी ज्यादा जलेगा, दूध, दही आदि रसोंका सेवन करनेसे न बेचनेके लिए घी रहेगा और न भूसीके लिए मठा बचेगा। अतः जब वह प्रतिदिन व्याज वसूल करनेके लिए जाता तो तेलियोंमें घूमते-घूमते उनके कोल्हूके पास जाकर जरा हँसकर कहता 'वाह यह तो खूब खुशबूदार है और ऐसा कहकर तेलकी खलका एक टुकड़ा उठा लेता । जब भोजनका समय होता तो उस खलकी गन्धको सूंघता जाता और जिसे कोई भी नहीं खा सकता ऐसे बहुत पुराने और कम कीमती धानको बिना ही कूटे-काटे काँजीके साथ खा जाता। इसीसे सर्वत्र उस लोभीका नाम 'पिण्याकगन्ध' प्रसिद्ध हो गया था। ___'मुखको सुगन्धित करने मात्रसे ही तो प्रयोजन है, अतः पानमें धन खर्च करना व्यर्थ है' ऐसा सोचकर वह पीपलके वृक्षकी छालको तमाखूके पत्तेके साथ खाता था उसके खानेसे भोजनसे भी अरुचि हो जाती थी। आधे पेट खानेसे न शरीरमें कोई विकार उत्पन्न होता है और न मनमें, ऐसा सोचकर वह १. मरिचादीनां व्ययः । २. प्रचुरान्नस्य भुक्तिः । ३. धान्यत्वग्निमित्तम् । ४. व्याज । ५. तिलंतुद । ६. तिलपीलनभाण्डम् । ७. खलः । ८. भोजनवेलायाम् । ९. अतिजीर्णम् । १०. स्वल्पमूल्यम् । ११. खण्डनरहितम् । १२. काजिकेन सह । १३. सागरदत्तस्य । १४. पिप्पलछल्ली। १५. वावचीपत्र । पत्राणां पश्चाद् भोजने न रुकुचिर्यासां विष्णुतरुत्वां ताः । १६. अर्धाहारेण ।
SR No.022417
Book TitleUpasakadhyayan
Original Sutra AuthorSomdevsuri
AuthorKailashchandra Shastri
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2013
Total Pages664
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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